Book Title: Subhashit Ratna Sandoha
Author(s): Amitgati Acharya, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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सुभाषितसंवोहः
[421 : १६-२१ 421) मैत्री सत्त्वेषु मोबं गुणवति करुणां' क्लेषिते बेहभाजिर
मध्यस्थत्वं प्रतीपे जिनवचसि रति निग्रहं क्रोधयोधे। अक्षार्थेभ्यो निवृत्ति मृतिजननभवाद्धीतिमत्पन्तदुःखान
रे जीव त्वं विषस्स्व च्युतनिलिलमले मोअसौख्ये ऽभिलाषम् ॥ २१ ॥ 422) कर्मानिष्टं विधत्तं भवति परवशो लज्जते नो जनानां
धर्माधमो न वेत्ति त्यजति गुरुकुलं सेवते नीचलोकम् । भूस्वा प्रायः कुलोनः प्रथितपृथगुणो माननीयो बुधो ऽपि
प्रस्तो येनात्र केही नुव मवनरिj जीव' तं दुःखवक्षम् ।। २२॥ 423) रागोयुक्तो ऽपि देवो ऽतरवितरजनप्रन्यसस्तो ऽपि सार्ष
जीवध्वंसो ऽपि धर्मस्तनुविभवसुखं स्थाष्णु मे सर्वदेति । संसारापातहेतुं मतिगतिदुरित कार्यते येन जीव
स्त मोहं मदय स्वं यदि सुखमतुलं वाञ्छसि श्यक्तबाघम् ॥ २३ ॥ कोपादीन् एवं निजंय ।। २० ॥ रे जीव, त्वं सत्त्वेषु मैत्री, गुणवति मोदं, फ्लेशिते देहभाजि करुणां, प्रतीपे मध्यस्थत्त्वं जिनवचसि ति, क्रोषयोधे निग्रह, अक्षार्थेभ्यः निवृत्ति, मृतिजननभवात् अत्यन्त दुःखात् भोति, व्युतनिखिलमले मोक्ष सोपे अभिशापं विधत्स्व ।। २१॥ हे जीव, अत्र पेन प्रस्तः देही प्राशः कुलीनः प्रथितपय गुणः माननीयः वृषः अपि भूत्वा अनिष्ट कर्म विपत्ते, परवशो मति, जनानां नो लज्जते, धर्माधमों न वेत्ति, गुरुकुलं त्यजति, नीचलोक सेवते, तं दुःखदक्षं मदनरिपु नुद ॥ २२ ॥ स्वं यदि अतुलं त्यक्तबाधं सुखं वाञ्छसि तहि त भोहं मर्दय । येन रागोद्य क्तोऽपि देव: अतरत्, इतरजनग्रन्थसक्तः अपि साधुः, जीवध्वंसः अपि धर्मः, मे तनुविभवसुखं सर्वदा स्थास्नु इति जीवः [ मन्यते ] येन जीवः नहीं हैं जितने कि क्रोषादि अहित करने वाले हैं। अतएव तू उक्त कोधादि शत्रुओंके ऊपर विजय प्राप्त करनेका प्रयत्न कर । ऐसा करने पर ही तुझे निराकुल सुखको प्राप्ति हो सकेगी, अन्यथा नहीं ॥ २० ॥ हे जीव ! तू सब प्राणियोंमें मित्रताका भाव रख---किसीको शत्रु न समझ, उक्त सब प्राणियोंमें भी जो विशेष गुणवान हैं उनको देख कर हर्षको धारण कर, दुखी जनके प्रति दयाका व्यवहार कर, जिनका स्वभाव विपरीत है ननके विषयमें ! मध्यस्थताका भाव धारण कर, जिनवाणीके सुनने और तदनुसार प्रवृत्ति करने में अनुराग कर, क्रोधरूप सुभटको पराजित कर, इन्द्रिय विषयोंसे विरक्त हो, मृत्यु एवं जन्मसे उत्पन्न होनेवाले अतिशय दुखसे भयभीत हो, और समस्त कम मलसे रहित मोक्ष सुखको अभिलाषा कर ॥२१॥ जिस कामरूप शत्रुसे पीड़ित होकर प्राणी विद्वान्, कुलीन, प्रसिद्ध उत्तम गुणोंको धारण करनेवाला, स्तुत्य एवं पण्डित होता हुआ भी यहां निन्ध कार्यको करता है, दूसरों के अधीन होता है, मनुष्योंमें लज्जित नहीं होता है-निलंग्ज हो जाता है, धर्म व अधर्मका विचार नहीं करता है, उत्तम जनोंको छोड़ देता है और नीच जनोंकी सेवा करता है; हे जोव ! तू उस दुखदायी कामरूप शत्रुको नष्ट कर दे ॥ २२ ॥ हे आत्मन् ! यदि तु निर्बाध अनुपम सुखको प्राप्त करना चाहता है तो उस मोहको नष्ट कर दे जिसके द्वारा जीव रागमें लद्युक्त प्राणीको देव, अभ्यन्तर व बाह्य परिग्रहमें आसक्त व्यक्तिको साघु, प्राणि हिंसाको धर्म तथा शरोर एवं सम्पत्तिसे उत्पन्न होने वाले सुखको सर्वदा स्थिर रहनेवाला मानकर अपनी संसार परिभ्रमणको कारणभूत बुद्धि, प्रवृत्ति एवं पापको करता है ।। २३ ॥ हे आत्मन् !
१स करुणं । २ भाजे । ३ सum. कुलोनः । ४ स OL. बुधो। ५ सदेहोनुदमदन' । ६ स नीदि । ७ स ७ तरतरित रजग्रन्थ , देवोत्तरतदि । ८ स शक्तो। ९ स साधुजीव । १० स स्थाष्णुमे, स्थाष्णुभे, स्थाष्णुमेतत्सर्व ११ स दुरतं ।