Book Title: Subhashit Ratna Sandoha
Author(s): Amitgati Acharya, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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१७.
648 : २६-७]
२६. बाप्तविचारद्वाविंशतिः ___647) भावाभावस्वरूपं सकलमसकलं दृष्यपर्याय तस्वं
भेदाभेवावलीढं त्रिभुवनभवनाभ्यन्तरे वर्तमानम् । लोकालोकावलोको 'गतनिखिल मल लोकते यस्य बोध
स्तं देव मुक्तिकामा भवभवनभिदे भावयन्स्वाप्तमत्र ॥६॥ 648) स्थाध्चेन्नित्यं समस्तं परिणतिरहितं कर्तृकर्मव्युवासा
त्संबन्यस्तत्र दृश्यम्न फल फलवतोनयिनित्ये समस्ते । पर्यालोज्येति येन प्रकटितमुभयं ध्वस्तदोषप्रपञ्च
से सेवध्वं विमुक्त्यै जनननिगलिता' भक्तितो देवमाप्तम् ॥ ७॥ मानं भावाभावस्वरूपं, सकलम् असकलम्, भेदाभेदावलीळ, द्रव्यपर्यायतत्त्वं गनिखिलमलम् आलोकते, तम् आप्तं देवम् अत्र मुक्तिकामाः भवभवनभिदे भावयन्तु ।। ६ ।। समस्तं परिणतिरहितं नित्यं स्यात् चेत् तत्र कर्तृकमब्युदासात् फलफलवतोः संबन्धः न दृश्येत् । समस्ते अनित्येऽपि (स संबन्धः) न (दृश्येत्) । इति पर्यालोच्य येन ध्वस्तदोषप्रपञ्चम् उभयं प्रकटितम् ठम् आप्तं देव जनननिलिताः विमुक्रम भक्तितः सेवध्वम् ॥ ७ ॥ कर्ता नो चेत् भोक्ता न । यदि विभुः भवति वियोगेन जिसका शान तीन लोकरूप गृहके भीतर स्थित भाव व अभाव स्वरूप, समस्त व असमस्त स्वरूप तथा मेद व अभेद स्वरूप (अनेकान्तात्मक) द्रव्य एवं पर्याय तत्त्वको स्पष्टतया देखता है--जानता है-मुक्तिके अभिलाषी भव्य जीव संसाररूप गृहको नष्ट करनेके लिये यहाँ उसी आप्त देवका चिन्तन करें॥६।। यदि समस्त वस्तुसमूह सर्वथा नित्य व परिणमनसे रहित हो तो फर्ता व कर्म आदिका अभाव हो जानेसे उसमें कार्यकारणभाव भी न दिख सकेगा उसके भी अभावका प्रसंग प्राप्त होगा। इसी प्रकार उक्त समस्त वस्तुसमूहके अनित्य होनेपर भी उक्त कार्य-कारणभाव न बन सकेगा। यही विचार करके जिसने उक्त बस्तु तत्त्वको सब दोषोंसे रहित उभयस्वरूप-कथंचित् नित्यानित्य-बतलाया है । जन्मरूप सांकलसे बंधे हुए संसारो प्राणी उपत बन्धनसे छुटकारा पाने के लिये उस माप्त देवका भक्तिपूर्वक आराधन करें ॥७॥ विशेषार्थ-वस्तु न सर्वपा निस्य है और न सर्वथा अनित्य भी, किन्तु वह कथंचित् नित्य और कथंचित् अनित्य है। यदि वस्तु सर्वथा नित्य हो तो उसमें किसी भी प्रकारका परिणमन नहीं हो सकता है और उस परिणमनके अभावमें फिर 'यह कुम्भकार घटका कर्ता और वह घट कर्म है इस प्रकारको कर्ता और कर्म आदिको भी व्यवस्था नहीं बन सकता है। ऐसी अवस्थामें लोगोंको सर्वदा अनुभवमें आनेवाले कार्यकारणभावके भी अभावका प्रसंग अनिवार्य होगा। इससे सिद्ध है कि वस्तु सर्वथा नित्य नहीं है, किन्तु परिणमन स्वभाववाली है इसी प्रकार वह सर्वथा अनित्य भी नहीं हो सकती है, क्योंकि वस्तुका प्रतिक्षण निरन्वय विनाश मानने पर पूर्वोक्त कार्य-कारणभावके अभावका प्रसंग ही तदवस्थ रहेगा। इसका कारण यह है कि वस्तुको उत्तरोत्तर होनेवाली पर्यायोंमें यदि सामान्य स्वरूपसे द्रव्यका अवस्थान न माना जायगा तो प्रतिक्षण विनष्ट होनेवाली पर्यायोंमें कर्ता व कर्म आदिको व्यवस्था नहीं रह सकती है। इससे सिद्ध है कि जिसप्रकार वस्तु सर्वथा नित्य नहीं हो सकती है उसीप्रकार वह सर्वथा अनित्य भी नहीं हो सकती है। किन्तु वह द्रव्यको अपेक्षा नित्य और पर्यायकी अपेक्षा अनित्य भी है। 'व्यवहारमें देखा भी जाता है कि जब घट विनष्ट होता है तो उसका सर्वथा अभाव नहीं हो जाता है, किन्तु ठोकरों
१ स 'पर्यायि । २ स भुवना' । ३ स om. गत, गति । ४ स निखिलं लोकते, लोकने । ५ स बंदे for देवं । ६ स कामो, भवनकन । ७ से oun. फल 1 ८ स तत् । ९ स गलितो ।