Book Title: Subhashit Ratna Sandoha
Author(s): Amitgati Acharya, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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[644 : २६-३
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सुभाषितसंबोहः 644) 'देहायेन शम्भुगिरिपतितनयां नीतवान् ध्वस्तधैर्यो
धक्षो' लक्ष्मी मुरहिट पयसिजनिलयो ऽष्टावक्त्रो बभूव । गीर्वाणानामघोशो दशशतभगतामस्तबुद्धिः प्रयातः
प्रध्यस्तो येन सो ऽपि कुसुमशररिपुर्ववमाप्तं तमाहुः ॥३॥ 645) पृथ्वीमुद्धतमीशा: सलिलधिसलिलं पातुर्माद्रि प्रपेष्ट
ज्योतिश्चक्र निरोवर्ष 'प्रचलितमलिनं ये ऽशितु सत्त्ववन्तः । निनेंतु ते ऽपि यामि प्रथितपृथुगुनाः शक्नुवन्ति स्म नेन्द्रा
यो ऽत्रामूनीत्रियाणि विजगति जितवानाप्तमाहस्तमीशम् ॥ ४॥ 646) वर्णोष्ठ स्पन्चमुक्ता सकूदखिलजनान्' बोषयन्ति विबापा
"निर्वाञ्छोच्छवासदोषा मनसि निवषती" साम्यमानन्दधात्री। ध्रौव्योत्पावव्ययाभ्यं त्रिभुवममखिलं भावतेयस्य वाणी तं मोक्षाय भयन्तु स्थिरतरषिषना वेवमाप्तं मुनोन्द्राः ॥ ५॥
निलयः अष्टावक्त्रः बभूव । गीर्वाणानाम् बोचः बस्तबुद्धिः [ सन् ] दशशतभगतां प्रयावः । सोऽपि कुसुमशररिपुः येन प्रध्वस्तः सं देवम् आप्तम् आतुः ।। ३ ।। ये पृथ्वीम् उद्धहुँ, सलिलपिसलिलं पातुम्, अनि प्रपेष्टु, ज्योतिश्चक्र निरोधु, प्रचलितम् अनिलम् अशितुम् ईशाः, ते प्रथितयुगुगाः सत्त्ववन्तः इन्द्राः अपि अत्र यानि निजेतुं न शक्नुवन्ति स्म, अमुनि इन्द्रियाणि विजगति यः जितवान् तम् ईशम् आप्तम् आहुः ॥ ४॥ यस्य वर्णोष्ठस्पम्दमुक्ता, अखिळजनान् सकृत् बोषयन्ती, विवापा, निर्वासोच्छ्वासदोषा, मनसि साम्यं निदधती, आनन्दधात्री, बाणी घोम्योत्पादव्ययारम्पम् अनिलं त्रिभुवनं भाषते, वम् प्राप्तं देवं स्थिरतरधिषणाः मुनीन्द्राः मोक्षाय श्रपन्तु ॥ ५॥ यस्य लोकालोकावलोकी बोषः त्रिभुवनभवनाम्यन्तरे वर्त
महादेवने पार्वतीको अपने बाधे शरीरमें धारण किया, कृष्णने लक्ष्मीको वक्षस्थल पर धारण किया, ब्रह्मा चार मुखोंसे संयुक्त हुमा, तथा देवराज (इन्द्र) बुद्धिहीन होकर एक हजार योनियोंको प्राप्त हुआ; उस सुभट कामदेवको भी जिसने नष्ट कर दिया है जो कभी उसके वशमें नहीं हुआ है उस कामदेवके शत्रु स्वरूप देवको आप्त कहते हैं ॥ ३ ॥ तीनों लोकोंमें जो इन्द्र आदि पृथ्वीका उद्धार करने में समर्थ थे, जो समुद्र के समस्त जलके पोने में समर्थ थे, जो पर्वतमें प्रवेश करनेके लिये समर्थ थे, जो ज्योतिषियोंके समूहको रोकनेके लिये समर्थ थे, तथा जो चलती हुई वायुके खानेमें समर्थ थे, प्रसिद्ध महागुणोंको धारण करनेवाले वे भी जिन इन्द्रियोंको नहीं जीत सके उन इन्द्रियोंको जो बीत चुका है उस ईश्वरको आप्त कहते हैं ॥४॥ जिसको वाणी वर्ण (अकरादि) और ओठोंके हलन-चलनसे रहित है, एक साथ सब ही प्राणियोंको वस्तु स्वरूपका बोध कराती है, बाघासे रहित है, इच्छा एवं उच्छ्वासके दोषसे दूर हैं, मनमें समताभावको करनेवाली है, आनन्दको उत्पन्न करती है; तथा ध्रौव्य उत्पाद व व्यय स्वरूप समस्त लोकका निरूपण करती हैं; अतिशय स्थिर बुद्धिके धारक मुनिजन मोक्षकी प्राप्तिके निमित्त उस आप्त देवका आश्रय लें-उसको ही यथार्थ देव समझकर उसके सदुपदेशको सुनें जिससे कि निर्बाध मोक्षसुख प्राप्त हो सके ।। ५॥ लोक और अलोकको देखनेवाला
स देहाई । २ स नीति । ३ स वक्षोलक्ष्मी । ४ स मुद्ध, मुरुविद्, मुरद्विद्ययसि , मुरद्विषयसि । ५ स प्रवेष्टुं । ६ स प्रचलत°, प्रचित । ७ स ये शिशु सत्ववंता । ८ स वर्णोष्टस्यन्द मुक्त्वा । ९स जना शोधयंति । १० स निर्वावोछास', निवांछे । ११ स विवधती । १२ स भाष्यते ।