Book Title: Subhashit Ratna Sandoha
Author(s): Amitgati Acharya, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
View full book text
________________
१७७
486 : २६-११]
२६. आप्तविचारद्वाविंशतिः 650) पा रागद्वेषमोहा'नयति हरते चारचारित्ररत्न
भिन्तें मानोच्चशेलं मलिनपति कुलं कीर्तिवल्ली सुनीते । तस्यां ये यान्ति नार्यामुपहतमनसा सक्तिमत्यन्समूढा
देवाः कन्दपंतप्ता पति तनुमतां ते कर्थ मोक्षलक्ष्मीम् ।। ९॥ 651) पोन श्रोणीनितम्बस्तनजघनभराक्रान्तमन्चप्रमाणा
स्तारण्योद्रेकरम्या मवनशरहताः कामिनीर्ये भमन्ते । स्थूलोपस्थस्थलोना कुशलकरतलास्फाललीलाकुलास्ते
वेवाः स्युश्वेज्जगत्यामिह ववत विकः कीदृशाः सन्त्यसन्तः ॥१०॥ 652) ये संगृह्मायुधानि क्षतरिपुरुधिरैः पिचराण्याप्तरेला
वनेष्वासासिचकक्रकचहलगवाशूलपाशाविकानि । रौवभूभङ्गवस्त्राः सकलभवभूतां भौति"मुत्पादमन्ते
ते चेद्देवा भवन्ति प्रणिगवत बुधा लुषकाः के भवेयुः ॥११॥ चाश्चारितरत्नं हरते, मानोच्चशैलं भिन्ते, कुलं मलिनयति, कीर्तिवल्ली लुनीते, तस्यां नाया उपहतममसा कन्दपंतप्ता. अत्यन्तमूकाः ये देवाः आसक्ति यान्ति, ते तनुमतां मोक्षलक्ष्मों कथं ददति ॥ ९॥ ये पीनप्रोणीनितम्बस्तनजघनभराकान्तमन्दप्रयाणाः तारुण्योद्रेकरम्याः मदनशरहताः कामिनी: भजन्ते, (ये) स्थूलोपस्थस्थलीना कुशलकरतलास्फाललीलाकुलाः, ते इह जगत्या देवा स्युः पेत् [हे ] विवः असन्तः कीदृशाः सन्ति ववत ।। १०॥ में भरिपुरुधिरैः पिराणि वनेष्वासासिचक्रककचहलगदामूलपाशादिकानि आयुधानि संगृह्य आप्तरेलाः रौदभ्रूभनवक्त्राः सकलभवभृतां भौतिम् उत्पादयन्ते, ते चेत् देवा भवन्ति, [ भो ] बुधाः प्रणिगदत, सुन्धकाः के भवेयुः ॥ ११ ॥ येन व्याध्याधिव्यापकीर्णे विषयभूगगणे कामकोनिर्मल चारित्ररूप रत्नको नष्ट करती है, स्वाभिमानरूप उन्नत पर्वतको भेदती है, कुलको मलिन करती है
और कीर्तिरूप लताको छेदती है; उस स्त्रीक विषयमें मतिशय मुग्ध होकर जो विवेकसे रहित होते हुए आसक्तिको प्राप्त होते हैं वे कामसे संतप्त रहनेवाले प्राणियोंके लिये मोक्ष लक्ष्मीको कैसे दे सकते हैं ? नहीं दे सकते हैं ॥९॥ जो स्त्रियां पुष्ट श्रोणी, नितम्ब, स्तन और अघनके बोझसे दब करके मंद गतिसे चलती हैं; यौवनके प्रभावसे रमणीय दिखती हैं, तथा कानके बाणोंसे विद्ध रहती हैं उनके स्थूल योनिस्थलको जो कुशल हाथोंसे थपथपानेकी क्रीक्षामे ज्याकुल होकर उनका सेवन करते हैं वे यदि इस संसार में देव हो सकते हैं तो फिर हे विद्वज्जन ! यह कहिये कि असज्जन कैसे होते हैं। अभिप्राय यह है कि ऐसे कामासक्त प्राणी कभी देव नहीं हो सकते हैं। कारण कि यदि ऐसे होन मनुष्य भो देव होने लगें तो फिर इस संसारमें सब ही देव बन जावेंगे, हीन कोई भी न रहेगा ॥ १० ॥ जो कपटको प्राप्त होते हुए बाहत (घायल ) शत्रुओंके रक्तसे पीतवणं हुए चन, धनुष, तलवार, चक्र, करॊत, हल, गदा, शूल और पाश आदि अस्त्र-शस्त्रोंका संग्रह करके समस्त प्राणियोंको भय उत्पन्न करते हैं तथा जिनकी भृकुटि तिरच्छी व मुख भयानक रहता है वे यदि देव हो सकते है तो हे विद्वज्जनो । यह कहिये कि व्याध कोन हैं। अभिप्राय यह है कि जिनका भयावह वेष है तथा जो नाना प्रकारके अस्त्र-शस्त्रोंको धारण करते हैं वे कभी देव नहीं हो सकते हैं। कारण कि वे उन व्याघोंके ही समान है जो निरन्तर प्राणिबघ किया करते हैं । ११ ।। जिन स्त्री, मांस और मद्य इन तोनके कारण जीव उस संसार
१ "मोहानल ज° 1 २ स भित्ते, नित्ये for भिन्त। इस मलन' । ४ स शक्ति । ५ स तत्वाः । ६ स श्रेणी। ___७ स विदत । ८ स विह, विदाः। १ स रुचिरैः । १० स व for चक्र । ११ स नीति° । १२ स प्रणिगदित ।
सु सं. २३