Book Title: Subhashit Ratna Sandoha
Author(s): Amitgati Acharya, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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[ 658 : २६-१७
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सुभाषितसंबोहः ___658) यो भ्रान्त्वोदेति कृत्या प्रतिविनमसुरेयिग्रहं व्याधिवितो
यो दुवरिण दीनो भयचकितमना ग्रस्यते राहणा च । मूढो विध्यरतबोषः कुसुमशरहतः सेवते कामिनी यः
सन्तस्तं भानुमाप्तं भवगहनबनपिछत्तये' नाशयन्ति ॥ १७॥ 659) मूढः कन्दर्पसप्तो वनचरयुवतो भग्नवृत्तः षडास्य
स्तद्भार्यासक्त चित्तस्त्रिदापतिरभूव गौतमेनाभिशप्तः । बहिनिःशेषभक्षी विगतकृपमना साङ्गको मालोलो
नेकोऽपोतेषु देवो विगलितहसिलो दृश्यते सस्वरूपः। 660) रागान्धा पौनयोनिस्तनमनभरा शान्तनारीप्रसंगात
कोपावारातिधाताः प्रहरणधरणाषिणो भीतिमन्तः । आत्मीयानेकदोषाम्यवसितविरहा: स्नेहतो दु:खिनश्च ये देवास्ते कथं वः शमयमनियमान् दातुमीशा विमुक्त्यै ॥ १९ ॥
विग्रहं कृत्वा उदेति । च व्यापिवितः दीनः भयचकितममाः दुरिण राहणा प्रस्यते । बिध्वस्तबोधः मूढः यः कुसुमशरहतः कामिनी सेवते । सन्तः भवगहनबनच्छिसये तं भानुम् आप्तम् [ इति ] न आश्रयन्ति ॥ १७ ॥ कन्दपंतप्तः मूढः षडास्यः वनचरयुवती भग्नवृत्तः । गौतमेन तदासिक्तचित्तः त्रिदशपतिः अभिशप्तः अभवत् । वलिः निःघोषभक्षी विगतकृपमनाः । लागली मद्यलोलः 1 एतेषु विगलितकलिलः तस्वल्पः एकः अपि देवः न दृश्यते ॥ १८॥ ये देवाः पौनयोनिस्तमजधनमराकान्तनारीप्रसंगात् रागाम्या:, कोपात् आरातिषाताः, प्रहरणधरणात् वेषिणः भौतिमम्तः, आत्मीयानेकदोषात् व्यवसित
जो सूर्य असुरोंके साथ युद्ध करके भ्रमम करता हुआ प्रतिदिन उदयको प्राप्त होता है, जो व्याधि (कोढ़ से पीड़ित है, जो बेचारा मनमें भयभीत होकर दुनिवार राहुके द्वारा प्रस्त किया जाता है, तथा जो मूर्ख अशानतावश कामबाणसे पीड़ित होकर स्त्री ( कुन्ती )का सेवन करता है; उस सूर्यको आप्त मानकर सज्जन पुरुष संसाररूप वनका विध्वंस करनेके लिये कभी आश्रय नहीं लेते हैं ।। १७ ॥ मूर्ख कार्तिकेयने कामसे संतप्त होकर भील युधसिके विषयमें अपने चारित्रको नष्ट किया है, इन्द्र गौतम ऋषिकी पस्नीमें आसक्त होकर उसके द्वारा अभिशापको-सौ योनियोंको-प्राप्त हुवा है, अग्नि निर्दयचित्त होकर समस्त प्राणियोंको भक्षित करनेवाला है, और बलदेव मद्यके लोलुपी हैं। इस प्रकार इनमें से एक भी कोई निष्पाप ( निर्दोष ) यथार्थ देव नहीं दिखता है ॥ १८ ॥ जो देव पुष्ट योनि, स्तन और जघनके भारसे अभिभूत स्त्रीके प्रसंगसे रागमें अन्ध हैं; क्रोधके कारण शत्रुको नष्ट करनेवाले हैं, आयुधोंके घारक होनेसे द्वेषी एवं भयभीत हैं, अपने अनेक दोषोंके कारण निश्चित विरहसे संयुषस हैं, तथा स्नेहके कारण दुखी भी हैं वे देव आपलोगोंको मुक्तिके निमित्त शम, यम
और नियमको देनेके लिये कैसे समर्थ हो सकते हैं ? नहीं हो सकते ॥ १९ ॥ विशेषार्य-यथार्य देव ( आप्त ) वही हो सकता है जो कि रागादि दोषोंसे रहित हो। लोकमें जो ब्रह्मा, विष्णु एवं शिव आदिको देव माना जाता है वे वास्तवमें देव नहीं हो सकते हैं। कारण यह कि दे उपर्युक्त रागादि दोषोंसे सहित हो हैं, न कि रहित । वे रागी तो इसलिये हैं कि स्त्रियोंमें आसक्त हैं। यथा-ब्रह्मा यदि इन्द्रके द्वारा भेजी गई
१ स स्थित्तये ? । २ स "शक्त' । ३ स भिशक्तः। ४ स भने । ४ स कृपमना, 'कुतमनां । ४b स लांगलिः । ४८ स लोभो । ५ स तत्र रूप । ६ स "धराकान्त' । ७ स प्रसंगा। ८ स "धरणाः । ९ स विरहास्नेहतो, स्नेहिनो ।