Book Title: Subhashit Ratna Sandoha
Author(s): Amitgati Acharya, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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420 : १६-२०
१६. जीवसंबोधनपञ्चविंशतिः 418) रे पापिष्ठातिदुष्ट' व्यसनगतमते निन्यकर्मप्रसक्तः
न्यायान्यायानभिज्ञ प्रतिहतकरण "व्यस्तसन्मार्गबुदधे। कि कि दुःखे न यातो ऽविनय वशगतो येन जीयो विषय
स्वं तेनेनों नित्य प्रसभमिह मनो जैनतत्वे निधेहि ॥ १८॥ 489) लज्जाहोनात्मशको कुमतगतमते स्पत्ततत्वप्रणीते।
१॥धृष्टानुष्ठाननिष्ठ स्थिरमदनरते मुक्ति मार्गाप्रवसे ।
संसारे कुःखमुन सुखरहितगताविन्द्रियैः प्रापितो ये___ उस्तेषामयापि जोय.४ मसि गतघृण ध्वस्तबु वशित्वम् ।। १९ ॥ 420) संपंव्याघ्रभवैरिज्वलनविषयमग्राहशत्रु ग्रहाधान्
हित्वा "तुष्ट स्वरूपान् ववति तनुभृतां ये वयषां सर्वतोऽपि । तान्कोपावोनिकृष्टानतिविषमरिपूग्निजय त्वं प्रवीणाघेरे जीव प्रलोन प्रशमगतिमते मनस्वशत्रो ॥२०॥
न्यायान्यायानभिन्न, प्रतिहतकण, म्यस्तसम्मार्गबुद्ध, येन अविनयवशगत जीवः विषह्य किं किं दुःखं न यातः । तेन त्वम् एनः निवयं इह जैनतत्त्वे मनः प्रसभं निहि ।। १८ ।। लमहीन, मारमशत्रो, कुमतगसमते, त्यक्ततत्वप्रणीते, षष्टानुष्ठाननिष्ठ, स्थिरमदनरते, मुक्तिमार्गाप्रवृत्ते, गतषण, वस्तबुद्धे, जीव, सुखरहितगतौ संसारे त्वं यः इन्द्रियः उग्रं दुःख प्रापितः तेषां वशित्वम् अद्यापि व्रजसि ॥ १९ ॥ रे रे प्रलीनप्रशमगतिमते, अदम्पभग्नस्वशत्रो, बीव, दुष्टस्वरूपान् सपथ्याने. भवरिज्वलनविषयमग्राहशत्रुम्हाद्यान् हित्वा ये तनुभृतां सर्वतः अपि व्यवां ददति, अतिविषमरिपून निकृष्टान् तान् प्रवीणान् कारण जीव अविनयके वशीभूत होकर किस किस दुःसह दुखको नहीं प्राप्त हुआ है-सब प्रकार दुःसह दुखको प्राप्त हुआ है इसीलिये तु बलपूर्वक पापको छोड़कर यहां जैन तत्त्वमें मनको स्थिर कर ।। १८॥हे निर्लज्ज, अपने आपका शत्रु, एकान्स मतोंमें बुद्धिको लगानेवाले, तत्त्व रुचिसे रहित (मिथ्यादृष्टि), विनयहीन (निन्य) आचरणमें विश्वास करनेवाले, काममोगमें आनन्द माननेवाले और मोक्ष मार्गमें न प्रवृत्त होने वाले ! तू जिन इन्द्रियोंके वशीभूत होकर संसारमें सुख रहित गति (नरकादि दुर्गति) में तीव्र दुखको प्राप्त हुआ है, हे निर्दय दुर्बुद्धि जीव ! आज भी तू उन्हीं इन्द्रियोंके वशीभूत हो रहा है ॥ १९॥ हे शान्तिरहित मार्गमें प्रवर्तमान एवं अपने क्रोधादि शत्रुओंको न नष्ट करनेवाले जीव ! सर्प, व्याघ्र, हाथी, बैरी, अग्नि, विष, यम, ग्राह ( हिसक जल-जन्तु), शत्रु और ग्रह ( शनि आदि ) आदिको छोड़कर तु जो क्रोधादि निकृष्ट शत्रु प्राणियोंको सब ओर से ही दुख देते हैं तथा जो स्वभावसे ही दुष्ट हैं ऐसे उन चतुर भयानक शत्रुओंको जीत ॥ २० ॥ विशेषार्थलोकमें सर्प आदिको शत्रु माना जाता है। परन्तु वे वास्तवमें ऐसे भयानक शत्रु नहीं है जैसे कि क्रोधादि भयानक शत्रु हैं। इसका कारण यह है कि उपर्युक्त सर्प आदि तो प्राणियोंको एक ही जन्ममें कष्ट दे सकते हैं, परन्तु क्रोधादि कषायरूप शत्रु प्राणियोंको अनेक जन्मों में दुख देने वाले हैं। इसीलिये जीवको सम्बोधित करके यहाँ यह उपदेश दिया है कि हे जीव ! तू जिन सादिकोंसे भयभीत होता हैं वे तेरा उतना अहित करनेवाले
ष्टव्यसन। २सशक्त । ३ स म्यायान्यायानभवत प्र. ४स व्यास्त. ध्वस्त । ५ स विनय । ६ स विषय । ७स तिवर्त्य । ८ सलज्जादि । ९ सशशे°for शत्रो। १०स स्विष्टा स्विष्टा, बिष्टा । ११स निष्टस्थिर । १२ स °मार्ग° । १३ सश्लेषाम् । १४ स जीवो। १५ स om. शत्रुगृहाद्या १६ स दुष्टरूपान् । १७९ रिपूनि । १८ सप्रलोनो। १९ सदाप ।
सु, सं. १५