Book Title: Subhashit Ratna Sandoha
Author(s): Amitgati Acharya, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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497 : १९-२४]
१९. दाननिरूपणचतुविंशतिः 495) दाता भोक्ता बढेषनयुतः सर्वसस्वानुकम्पी
'सत्सौभाग्यो मधुरवचनः कामरूपातिशायी।
शश्वद्भक्त्या बुषजनशतेः सेवनीयाशिघ्रयुग्मो ___मर्यः प्राज्ञो व्यपगतमदो जायते ऽस्मात्य दानात् ॥ २२॥ 496) रोगतिप्रभृतिजनितहिभिर्वाम्बुमग्नः
सर्वाङ्गीणव्यथनपटुभिर्वाषितुं नो स शक्यः । आजन्मान्तः परमसुखिनः जायते चोषपाना
दाता यो निर्जर'कुलवपुःस्थानकान्तिप्रतापः ॥ २३ ॥ 497) दत्त्वा वानं जिनमतरूचिः कर्मनि शनाय
भुक्त्वा' भोगास्त्रियशवसतो दिव्यनारीसनाथः । मावासे वरकुलवपुजैनधर्म विषाय हत्या कर्म स्थिरतररिपुं मुक्तिसोल्यं प्रयाति ॥ २४ ॥
__ इति वाननिरूपण चतुर्विशतिः ॥ १९॥ कामरूपातिशायी, भक्त्या बुधजनशतः शाश्वत् सेवनीयांतियुग्मः, व्यपगतमदः प्राशः जायते ॥ २२ ॥ यः औषधानां दाता, सः वह्निभिः अम्बुमरतः वा वातप्रभूतिजनित: सर्वाङ्गीणज्यपनपटुभिः रोगैः वाषितुं न शक्यः । आजन्मान्तः परमसुखिना [तः ] निर्जरकुलवपुःस्थानकान्तिप्रतापः जायते ॥ २३ ॥ जिनमतरुचिः कर्मनिाशनाय दानं दत्वा त्रिदशवसतो दिग्यनारीसनापः भोगान् भुक्त्वा भल्वासे वरकुलवपुः जैनधर्म विधाय, स्थिरतर्रारपुं कर्म हत्वा मुक्तिसौख्यं प्रयाति ॥ २४ ।।
__इति दाननिरूपणचतुर्विंशतिः ॥ १९ ॥ रहित होता है। उसके चरणयुगलकी सेवा निरन्तर भक्तिपूर्वक सैकड़ों विद्वान करते हैं ॥ २२ ॥ जो मनुष्य अतिशय सुखप्रद औषधियोंको देता है उसे जिस प्रकार जलमें डूबे हुए प्राणीको अग्नि बाधा नहीं पहुंचा सकती उसी प्रकार वात आदि ( पित्त व कफ से उत्पन्न होकर समस्त अंगोंको पीड़ित करनेवाले रोग बाधा नहीं पहुंचा सकते हैं। वह जन्मसे मरण पर्यन्त अतिशय सुखी रहकर विशिष्ट कुल, शरीर, स्थान, कान्ति और प्रतापसे संयुक्त होता है ॥ २३ ॥ जिनमतमें रुचि रखनेवाला ( सम्यग्दृष्टि ) जो मनुष्य कर्मको नष्ट करने के लिये दान देता है वह प्रथमतः स्वर्गमें देवांगनाओंके साथ उत्तम भोगोंको भोगता है और फिर मनुष्यलोकमें उत्तम कुल एवं शरीरको धारण करके जैन धर्मको ग्रहण करता हुआ कर्मरूप प्रबल शत्रुको नष्ट करता है । इस प्रकारसे वह मोक्ष सुखको प्राप्त होता है ॥ २४ ॥
इस प्रकार चौबीस श्लोकोंमें दानका निरूपण किया ॥ १९ ॥
१ स तत्सौ° 1 २ सद्भक्ता। ३ स याहि ।४ स मुषितो, सुखितां । ५ स जाये, जायता । ६ म निर्भर निझरे । ७ स भुक्ता। ८ स हृत्वा कर्म स्थिर° १९ स °निरूपणम् ।