Book Title: Subhashit Ratna Sandoha
Author(s): Amitgati Acharya, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 167
________________ १५३ 46 : २१-२४] २१ मांसनिरूपणषड्विंशतिः 541} विद्यावयासंघमसत्यशौचध्यानव्रतज्ञानवमक्ष'मायाः । संसारनिस्तारनिमित्तभूताः पलाशिनः सन्ति गुणाः न सर्वे ॥ १९ ॥ 542) मृगान्वरा कांचालतो ऽपि तूर्ण निरागसो त्यत्तविभोतचित्तान् । ये ऽश्नन्ति मांसानि निहस्य पापास्तेम्यो निकृष्टा अपरे"न सन्ति ॥ २०॥ 543) मांसान्यशित्या विविधानि मा यो निर्वयात्मा नरकं प्रयाति | निकृस्य शस्त्रेण परमिकृष्टः प्रखाग्रते मांसमसौ स्वकीयम् ॥ २१ ॥ 544) निवेद्य 'सस्वेष्वपदोषभावं मे अनन्ति पापाः पिशितानि गधाः । तैः कारितो जीव वधः समस्तस्तेम्यष्ठको नास्ति च हिंसको हि ॥२२ ।। 545) शास्त्रेषु मेष्यङ्गिवषः प्रवृत्तः "ठकोत्तशास्त्राणि यथा न तानि। प्रमाणमिच्छन्ति विबुद्धतत्वा: संसारकान्सारम"निम्बनीयाः ॥ २३ ।। 546) यद्वक्तरेतोमल चोर्यमङ्गमांसं "तदुभूतमनिष्टगन्धम् । यद्यश्नतो ऽमेष्य "समं म दोष"स्तहि "श्वचण्डालतका न दुष्टाः ।। २४ ।। नवतशानदमक्षमाद्याः संसारनिस्तारनिमित्तभूताः सर्वे गुणाः पलाशिनः न सन्ति ॥ १९ ॥ निरागसः अत्यन्तविभीतचित्तान तू चलत: अपि बराकान् मृगान् निहत्य ये पापा: मांसानि प्रश्नन्ति तेम्यः अपरे निकृष्टाः न सन्ति ।। २० ॥ यः निदयात्मा मयः विविधानि मांसानि अशित्वा नरकं प्रयाति असो परैः निकृष्टः शस्त्रेण निकृत्य स्वकीयं मांसं प्रसाधते ॥ २१ ॥ ये पापाः गधाः सत्त्वेषु अपदोषभावं निबेद्य पिशितानि अफ्नन्ति, तः अतीव समस्तः वधः कारितः । हि तेम्यः ठकः हिसकः प नास्ति ।। २२ ॥ येषु शास्त्रषु अङ्गिवषः प्रवृत्तः तानि ठकोक्तशास्त्राणि, विबुद्धतत्त्वाः अनिन्दनीमाः, प्रमाणं यथा न इच्छन्ति ! [ यतः ते ] संसारकान्तारं न इच्छन्ति ॥ २३ ॥ यत् अङ्गं रक्तरेतोमलवोयं तदुद्भूतम् अनिष्टगन्धं मांसम् । करता है उसके संसारनाशके कारणभूत विद्या, दया, संयम, सत्य, शौच, ध्यान, व्रत, शान, दया, क्षमा आदि ये सब गुण नहीं होते हैं ॥ १९॥ जो मृग बेचारे तीव्र वेगसे भी चलते हैं—दोड़ते हैं, किसीका कुछ अपराध नहीं करते हैं तथा जिनका चित्त अतिशय भयभीत है उनको मारकर जो पापी मांसको खाते हैं उनसे निकृष्ट और दूसरे कोई नहीं हैं--वे सबसे अधम हैं ।। २० ॥ जो कर मनुष्य अनेक प्रकारके मांसको खाकर नरकमें आता है उसे दूसरे निकृष्ट प्राणी शस्त्रसे उसका ही मांस काटकर खिलाते हैं ।। २१ ॥ जो मांसके लोलुपी । पापो प्राणी लोगोंमें निर्दोषता प्रगट करके मांसको खाते हैं उन्होंने समस्त हो वधको अत्यधिक रूपसे किया है अर्थात् वे सबसे अधिक पापको करते हैं । जनसे अधिक दूसरा कोई ठग और हिंसक नहीं है वे सबसे अधिक घूतं ( आत्म-परवंचक ) और पापी हैं ॥ २२ ।। जिन गास्त्रोंमें प्राणिहिंसा प्रवृत्त है अर्थात् जो शास्त्र जोवोंको । प्राणिहिंसा में प्रवृत्त करनेवाले हैं उन्हें तत्त्वके जानकार अनिन्दनीय सत्पुरुष धूर्तोसे रचे गये शास्त्रोंके समान प्रमाण नहीं मानते हैं, क्योंकि वे संसाररूप वनमें परिभ्रमण करनेवाले हैं ॥ २३ ॥ जो शरीर रुधिर, शुक्र, मल एवं वीर्य स्वरूप है उससे उत्पन्न हुआ मांस दुर्गन्धसे युक्त होता है। यदि उसे खानेवाले मनुष्यके पवित्र अन्नाहारको खानेवालेके समान कोई दोष न हो तो फिर कुत्ता, चाण्डाल और भेड़िया भी दुष्ट नहीं कहे जा १सक्ष्यमाद्याः । २ स वराक्यरचलित । ३ स पर्णान् for तूर्ण, तूणान्नि" : स °चित्ताः । ५ स अपरेण । ६ स । प्रवाद्यते । ७ स सत्त्वश्रूपदोष° 1 ८ स तेभ्यो बको, तेम्यो वको। ९ स for च । १० स योक्त°, येकांकशास्त्राणि, वकोक्त । ११ स निनिद्यनीयः, विनिन्दनीयः । १२ स वार्षमंग, "रेतो भलवार्य । १३ स तदोद्भूत । १४ स । यद्यश्नते, यद्यद्भुते, पद्मश्नुते । १५ स मेध्य । १६ स योग । १७ स स्ववाण्डाल । सु. सं. २०

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