Book Title: Subhashit Ratna Sandoha
Author(s): Amitgati Acharya, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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567 : २२-१९]
२२. मनिषेधद्वाविंशतिः 562) यो ऽइनाति मघ निस्त्रिशस्तज्जोवास्तेन मारिताः ।
चेन्नास्ति खादक:' कश्चिद्वधकः स्यासदा' कथम् ॥१४॥ 563) एकत्र मधुनो बिन्दो भलाते। इसंख्यदेहिनः
यो हि न स्यात्कृपा तस्य तस्मान्मषुः न भक्षयेत् ॥ १५ ॥ 564) अनेकदोषदुष्टस्य मधुनो' पास्तदोषताम् ।
यो वृते तद्रसासक्तः सो ऽसत्याम्बुधिरस्तषोः ॥ १६ ॥ 565) यशल्पे ऽपि हते द्रव्ये लभन्ते व्यसनं बनाः ।
निःशेष मधुकर्य" मुष्णन्तो" म कथं व्यर्थः ॥ १७ ॥ 566) मथुप्रयोगतो वृद्धिर्मवनस्य ततो जनः ।
संचिनोति महत्पापं यात्यतो नरकावनिम् ॥१८॥ 567) बोनमंधुकरवर्गः संचितं मन कुण्डतः ।
यः स्वीकरोति निस्त्रिशः सो ज्यस्यजति कि नरः ॥ १२ ॥
यः निस्त्रिशः मधु अश्नाति वेन बज्जीवाः मारिताः । चेत् कश्चित् साक: नास्ति तदा वधकः कथं स्यात् ॥ १४ ।। हि यः मधुनः बिन्दौ असंख्यदेहिनः भक्षते, तस्य कृपा न स्यात् । तस्मात् मधुन भक्षयेत् ॥ १५ ।। तहसासक्तः यः अनेकदोषदुष्टस्य मधुनः पास्तदोषतां ब्रूते सः अस्तषी: असत्याम्बुधिः ॥ १६ ॥ यदि अल्पे अपि द्रव्ये हते जनाः व्यसनं लभन्ते [तहि ] निःशेषं मधुकथं मुष्णन्तः कथं न व्यषुः ।। १७ ॥ मधुप्रयोगतः मदनस्य वृद्धिः । ततः जनः महत्पापं संचिनोति। अतः (जनः) नरकान याति ।। १८॥ यः निस्त्रिंशः नरः दीनः मधुकरः वगैः कृपछुतः संचित मधु स्वीकरोति सः अन्यत् प्राणी मधुको खाता है वह तद्गत जीवोंको मारता है। ठीक है-यदि खानेवाला न हो तो जीववध करनेवाला कैसे होगा? नहीं होगा ॥ १४ ॥ विशेषार्थ-जो यह विचार करता है कि स्वयं जीववध न करके यदि वह मधु दूसरेके पाससे प्राप्त होता है तो उसके खाने में कोई हानि नहीं है। कारण कि उसके लिये जो जीववध किया गया है वह अपने निमित्तसे नहीं किया गया है। ऐसा विचार करनेवालेको लक्ष्य करके यहां यह बतलाया है कि जब मधुके ग्राहक रहते हैं तब ही घातक मनुष्य निरपराध प्राणियोंका बध करके मधुको प्राप्त करता है, न कि ग्राहकोंके अभाबमें । अतएव वैसी अवस्थामें भो मधुभोजी मनुष्य प्राणिहिंसाके पापसे मुक्त नहीं हो सकता है ।। १४ ॥ जो मनुष्य मधुको एक बूंदमें असंख्यात जीवोंको खाता है उनका नाश करता है उसके हृदयमें दया नहीं रह सकतो है। इसलिये मधुके खानेका त्याग करना चाहिये ।। १५ । जो मनुष्य मधुके स्वादमें बासक्त होकर अनेक दोषोंसे दूषित उस मधुको निर्दोष बतलाता है वह मूर्ख असत्यका समुद्र है-अतिशय झूठ बोलता है ॥ १६ ॥ यदि थोड़ा-सा भी धन हरा जाता है तो मनुष्य दुखको प्राप्त होते हैं। फिर भला जो मनुष्य मधुमक्खियोंके सब ही धन (मधु) को अपहरण करते हैं वे उन्हें कैसे दुखी नहीं करते हैं ? अवश्य ही दुस्सी करते हैं ॥१७॥ मधुके उपयोगसे कामको वृद्धि होती है, उससे मनुष्य पापका संचय करता है, और फिर इससे वह नरक भूमिको प्राप्त होता है-नरक गतिके दुःसह दुखको सहता है ॥ १८ ॥ जिस मधुको बेचारी मक्खियोंके समूहोंने बड़े कष्टसे संचित किया है उसको जो निर्दय मनुष्य स्वीकार करता है-खाता है—वह भला और
१ स खादिकः । २ स तथा । ३ स भक्षिते, भक्ष्यते । ४ स भक्षते । ५ स मधुनोपास्त । ६ स om. यो। ७ स तद्रसयोशक्तः । ८ स शक्सः सो सत्यो बुद्धिरस्तधीः। ९ स ति for पि । १. स °कये, कार्यार्थ । ११ स मुष्णतो, मुष्णति । १२ स मधुनो यो । १३ स महापापं ।।