Book Title: Subhashit Ratna Sandoha
Author(s): Amitgati Acharya, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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सुभाषितसंवोहः
| 588 : २३-१४ 588) यो ऽपरिचिन्त्य भवार्णवदुःखमन्यकलत्रमभीमति कामी।
साधुजनेन विनियमगम्यं तस्य किमत्र पर परिहार्यम् ॥ १८ ॥ 589) तापकर पुरुपातकमूलं दुःखशतार्थमनर्थनिमित्तम्।
लाति वशः पुरुषः कुसुमेयोग्रन्थमनेकविध दुनिन्धम् ॥ १९ ॥ 590) एवमनेकविध विषाति यो जननार्णवपातमिमित्तम् ।
चेष्टितमङ्गल बाणविभिन्नो नेह सुखी न परत्र सुखी सः ॥ २० ।। 591) दृष्टिचरित्रतपोगुणविद्याशीलदयावमशौचशमाद्यान् ।
कामशिखी वहति क्षणतो नुहिरिवन्धनमूजितमत्र ॥ २१ ॥ 592) किंबहुना कथितेन नरस्य कामक्शस्य न किंचिवकृत्यम् ।
एवमवेत्य सवा मतिमतः कामरिघु क्षयमत्र नयन्ति ।। २२ ॥ 593) नारिरिमं विदधाति नराणां रोजमना नपतिनं करीतः।
दोषमहिनं न तीवविषं वा यं वितनोति मनोमववेरी ॥ २३ ॥ परः परदुःखम् अविद्यम् अङ्गी संसृतिदुःखविधौ पापम् अविदित्वा अपरस्य प्राणसमानि धनानि हरते ।। १७ ॥ यः कामी भवार्णवदुःखम् अपरिचिन्त्य साधुजनेन विनिन्धम् अगम्यम् अन्यकलत्रम् अभीमति । तस्य अत्र परं परिहार्य किम् ॥ १८ ॥ कुसुमेषोः वशः पुरुषः तापकरं पुरुषातकमूलं दुःखशतार्थम् अनर्थनिमित्तं बुधनिनाम् अनेकवित्रं पन्थं लाति ॥ १९ ॥ अङ्गजवाणविभिन्नः यः एवं जननार्णवपातनिमित्तम् अनेकविध चेष्टितं विदधाति सः इह न सुली परत्र न सुखी ॥ २० ॥ वह्निः ऊर्जितम् इन्धनम् इव अत्र नुः कामशिखी दृष्टिमरित्रतपोपुणविद्याशीलदयादमशौचधमाद्यान् क्षणतः दहति ॥ २१ ।। बहना कषितेन किम् । कामवशस्य नरस्य किंचित् अकृत्य म । एवम् अवेत्य अत्र मतिमन्तः कामरिपुं सवा क्षयं नयन्ति ॥ २२ ॥ मनोभवरी नराणां ये दोषं वितनोति, इमम् अरिःन विवषाति । रौद्रमनाः नृपतिः म, करीन्द्रः न, अहिः न, तीव्रवि
कामी पुरुष संसाररूप समुद्रके दुखका विचार न करके सज्जनोंके द्वारा निन्दनोय, अगम्य (अनुराग के अयोग्य परस्त्रीको इच्छा करता है वह यहां अन्य किस पापको छोड़ सकता है ? अर्थात् वह सब पापोंके करनेमें उद्यत रहता है ॥ १८॥ कामके बाणके वशीभूत हुआ मनुष्य उस अनेक प्रकारके परिग्रहको ग्रहण करता है जो कि संतापको उत्पन्न करता है, महापापका कारण है, सैकड़ों दुःखोंको देनेवाला है, अनर्थका कारण है, और विद्वानोंके द्वारा निन्दनीय है ॥ १९ ॥ जो प्राणी कामके बाणोंसे भेदा गया है वह संसाररूप समुद्रमें गिरानेवाली अनेक प्रकारकी चेष्टाको करता है इससे वह न इस लोकमें सुखी होता है और न पर लोकमें भो । तात्पर्य यह कि वह दोनों ही लोकोंमें दुखी होता है ॥२०॥ जिसप्रकार यहाँ अग्नि प्रबल इन्धनको क्षणभरमें जला देतो है उसीप्रकार कामरूप अग्नि भी मनुष्यके सम्यग्दर्शन, चारित्र, तप, शान, शोल, दया, दम, शोच और शम मादि गुणोंको क्षण भरमें जला देती हैं उन्हें नष्ट कर देती है ।। २१ ॥ बहुत कहने से क्या? कामके वशीभूत हुए मनुष्यके लिये न करनेके योग्य कुछ भी नहीं रहता वह सब हो अकार्यको करता है, इसप्रकार जान करके यहाँ बुद्धिमान् मनुष्य उस कामल्प शत्रुको नष्ट करते हैं ।। २२ ॥ मनुष्योंके जिस दोषको कामरूप शत्रु करता है उसको न शत्रु करता है, न मनमें रुद्रताको धारण करनेवाला राजा करता है, न मदोन्मत्त हाथी करता है, भ सपं करता है, और न तीव्र विष भी करता है ॥ २३ ॥ शत्रु और सर्पका दुख एक भवमें होता है, किन्तु
१ स यो परि । २ स भीप्सति । ३ स "हाय । ४ स कुसुमेषु [ २ ] ५ स विधि । ६ स मंगि । ७ स सुखं । ८ स मतिवंतः । ९ स रिपुतयमत्र ।