Book Title: Subhashit Ratna Sandoha
Author(s): Amitgati Acharya, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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[ 508 : २०-११ |
सुभाषितसंदोहः 508) व्यसनमेति करोति धनक्षयं मवमुपैति न वेत्ति हिताहितम् ।
क्रममतोस्य तनोति विषेष्टितं भजति मद्यवशेन न कां क्रियाम् ॥११॥ 509) रटति कष्यति 'तुष्यति वेपते पतति त्रुह्यप्ति नीव्यति खिद्यते।
नमति हन्ति जनं पहिलो यथा यवपि किचन जल्पति मखतः ॥ १२॥ 510) व्रततपोयमसंयम नाशिनी निखिलवोषकरों मविर पिवन् ।
वदति मर्मवयो" गतचेतनः किम् परं पुरुषस्य विडम्बनम् ॥ १३॥ 511) श्रयति पापमपाकुवते वृर्ष त्यजति सद्गुणमन्यमुपार्षति ।
ब्रजति बुगंतिमस्पति सद्गति किमयना कुरुते म सुरारतः ।। १४ ।। 512) नरकसंगमनं सुखनाशनं प्रजति यः परिपीय सुरारसम्।
बत विवार्य मुखं परिपाच्यते" प्रभुरखुःखमयो ध्रुवमन्त्र सः ॥ १५ ॥ 513) पिवति यो मदिरामप लोलुपः अति दुर्गतिवुःखमसौ जनः ।
इति विचिन्त्य महामसयस्त्रिधा परिहरन्ति सहा मविरारसम् ॥ १६ ॥
मचत्रशेन व्यसनम् एति, धनक्षयं करोति, मवम् उपति, हिताहितं न वेत्ति, क्रमम् बतीत्य विचेष्टितं तमोति का क्रियां न भवति ॥ ११ मयतः महिलयथा रटति, वष्यति, तुष्यति, वेपते, पतति, मुहाति, दीव्यति, सिघते, नमति, जनं हन्ति, यदपि किंचन जल्पति ॥ १२॥ व्रततपोयमसंयमनाशिनी निखिलदोषकरी मदिरा पिवन् गतचेतन: मर्मवचः वदति । पुर षस्य परं विडम्बनं किम् ।। १३ ॥ सुरारतः पापं अयति, वृषम् अपाकुरुते, सद्गुणं त्यजति,अन्यम् उपार्जति, दुर्गति ब्रजति, सद्गतिम् अस्यति, अथवा किं न कुरुते ।। १४ ।। मः अत्र सुरारसं परिपीय सुखनाशनं नरकसंगमनं व्रजति प्रचुरदुःखमयः सः मुखं विदार्य ध्रुवं परिपाट्यते बत ॥ १५ ।। अष यः लोलुपः जनः मदिरा पिवति असौ दुर्गतिदुःखं श्रर्यात । इति
गर्वको धारण करता है, हित और अहितको नहीं जानता है, और मर्यादाका उल्लंघन करके प्रवृत्ति करता है । ठीक है-पद्यके वशसे प्राणी कौन-से कार्यको नहीं करता है ? अर्थात् वह सब ही अहितकर कार्यको करता है ।। ११ ।। मनुष्य मद्यसे ग्रहपीड़ित प्राणीके समान भाषण करता है, क्रोधित होता है, सन्तुष्ट होता है, काँपता है, गिरता है, मोहको प्राप्त होता है, क्रीड़ा करता है, खिन्न होता है, नमस्कार करता है, प्राणीका घात करता है, तथा कुछ भी बोलता है ॥ २॥ वत्त, तप, यम और संयमको नष्ट करके समस्त दोषोंको करनेवाली मदिराको पीनेवाला मनुष्य मूर्छित होकर मर्मवचन ( मर्मभेदी वचन ) को बोलता है। ठीक है-इससे अधिक पुरुषको और विद्धम्बना क्या हो सकती है ? ॥ १३॥ मनुष्य मद्यको पीता हुआ धर्मको नष्ट करके पापका आश्रय लेता है, समीचीन गुणोंको छोड़कर दोषका संचय करता है, तथा सद्गतिको नष्ट करके दुर्गतिको प्राप्त होता है । अथवा मद्यपानमें आसक्त हुआ प्राणी क्या नहीं करता है ? सब कुछ करता है।॥ १४ ॥ जो प्राणी मद्यको पीकरके सुखका नाश करनेवाली नरकको संगतिको प्राप्त होता है-नरकमें जाता है उसे वहाँ नियमसे मुखको फाड़ करके अतिशय दुखदायक लोहा पिलाया जाता है, यह कष्टकी बात है ॥ १५ ॥ जो लोलुपी मनुष्य मद्यको पीता है वह नरकादि दुर्गतिके दुखको भोगता है, ऐसा सोचकरके विवेकी जीव निरन्तर उस मद्यका मन वचन कायसे परित्याग करते हैं ।। १६ ॥ जिस प्रकार अग्नि प्रबल इन्धनको जला देती है उसी
१ स om. तुष्यति । २ स खिद्यति । ३ स om. संयम । ४ स वदत्यधर्म , वदति धर्म, वदत धर्म' । ५ स °वचा। ६ स पाजिते, "पाजते । स न कुरुते । ८ स परिपाय । १ स मुधारसम् । १० स द विवादर्य । ११ स परिपायते ।