Book Title: Subhashit Ratna Sandoha
Author(s): Amitgati Acharya, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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[ २१. मांसनिरूपणपड्विंशतिः] 523। मांसावानाम्जीववषानुमोबस्ततो भवेत् पापमानामुपम् ।
ततो वोर्गम्तिमुप्रयोा मत्येति मांस परिमनीयम् ॥१॥ 524) तनुदभव' प्रांसमवनमेवं न्याय सामवननलियाम् । निस्त्रियचितोमिनिकासमा मुनो'
विकतना ॥२॥ 525) मातापिनो नास्ति बासुभाबा बया विना नास्ति बनस्य पुष्यम् ।
पुष्पं विना पाति पुरस्त संसारकान्तारमसम्पपारम् ॥३॥ 526) पलादिनो नास्ति मस्त पापं बायेति मासाशिवानप्रभुत्वम् ।
सतो 'वास्सिलामतो ऽममस्मानि:पापबादी नरकं प्रयाति ॥४॥
मांसाशनात् जीवववानुमोदः, ततः बनम्तम् न पापं भवेत् । सतः नदोषो दुर्गतिं वेद । इति मस्या मांसं परिपर्वनोमम् ॥ १॥ तनसम् बमेभ्य सम्बासयं साधुजनप्रनिम्वं विनिष्टगन्ध मासम्मबन लिस्विशषित: मा बुनः विशेष रूप समते ॥ २ ॥ मांसाशिनः असुभाजा दया नास्ति, दयां बिना कामस्य पुज्यं नास्ति, पुष्पं बिना मसभ्यपारं दुस्सदुःख संसारकान्तारं याति ॥ ३ ॥ पक्षादिनः जनस्व पापं नास्ति इति वावा मांसासिवन्प्रभुत्वम् । ततः बषास्तिवम्, अतः अपम् अस्मात् निःपापवादी मरर्फ प्रयाति ॥४॥षदकोटिलं पलम् अश्नतः दोषः नो पस्ति, इति मे नष्टश्मिः वदन्ति ,
मांसके खानसे जीवहिंसाका अनुमोदन होता है, उससे अनन्त तोब पाप होता है, और उससे प्राची बड़े भारी दोषोंसे परिपूर्ण नरकादि दुर्गतिको प्राप्त होता है। यह सोचकर बास्महितेषी प्राणियों को उस मांसपक्षणका परिस्याग करना चाहिये ॥१॥ जो मांस प्राणीके शरीरसे उत्पन्न होता है, अपवित्र है. मट आदि क्षत्र कीड़ोंका स्थान है, सम्धनोंके द्वारा निन्दनीय है सपा दुर्गन्धसे. युक्त है उसको सानेवाला मनुष्य मला कुत्तेसे कैसे विशेषताको प्राप्त होता है ? नहीं होता-उसमें बोर कुत्त में कोई भेद नहीं रहता है ॥२॥ विशेषार्थ अभिप्राय यह है कि जिसप्रकार विवेकसे रहित कुत्ता मासके दोषों तथा उसके माणसे उत्पन्न होनेवाले पापका विचार न करके उसको खाता है उसीप्रकार यदि अपनेको श्रेष्ठ समझनेवाला मनुष्य भी उस अनेक दोषोंसे परिपूर्ण पापोत्पादक मांसको खाता है तो फिर उसे उसे कुत्ते के ही समान समझना चाहिये। कारण कि उसमें जो कुत्तेको अपेक्षा कुछ जानकी मात्रा अधिक वी सो उसका वह उपयोग करता नहीं है ॥२॥ जो मांसको खाता है उसे प्राणियोंके प्रति क्या नहीं रहती, दयाके बिना मनुष्यके पुष्पका उपार्जन नहीं होता, इसीलिए उक्त पुण्यके बिना प्रापी उस संसार रूप वनमें परिभ्रमण करता है वो दुविनाश दुःखोंसे परिपूर्ण और अपार है ।। ३ ॥ जो प्राणी मांसको खाता है उसके कोई पाप नहीं होता; इसप्रकारके वचनसे मांसभोजी मनुष्योंको प्रभुता प्राप्त होती है, उससे बीवहिंसा होती है, इससे पाप और इससे मांसभक्षी प्राणीको निष्पाप बतलानेवाला मनुष्य नरकको जाता है ॥ ४ ॥ षट्कोटिशुद्ध मांसको खानेवाले जीवके कोई दोष नहीं होता,
१ स तनूदगवं । २ स निस्वंश', निस्तूंश, निस्तृश । ३ स वनो, अनी । ४ स न । ५ दिना । ६ स वध्या', ७ स मतोषमस्मा ।
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