Book Title: Subhashit Ratna Sandoha
Author(s): Amitgati Acharya, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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SIB : २०-२१]
२०. मनिषेधपञ्चविंशतिः 514) मननदृष्टिचरित्रतपोगुणं वहति वहिरिवेग्धनभूजितम् ।
पविह मवमपाकृतमुत्तमेनं परमस्ति ततो दुरितं महत् ॥ १७ ॥ 515) त्यति' शौचमिति विनिन्द्यातां भयति बोपमपाकुरुते गुणम् ।
भजति पर्वमपास्यति सदानं हतममा मवियरसहिषतः १०॥ 516) प्रचुरदोषकरोमिह वारिणों पिवति यः परिगृा भनेन ताम् ।
अतुहरं विषमुपमसौ स्फुट पिवति मूहमतिननिम्दितम् ॥१९॥ 517) सविहीं दूवनमाङ्गिगमस्य नो विवरिभुजगोपरचीपतिः ।
सबसुलं व्यसमधमकार वितानुले मदिरा नुचिनिन्दिता ॥२०॥ 518) "मतितितिकोतिकपाङ्गनाः परि हरति वेव नाचिता।
नरमवेक्ष्य सुराङ्गानयाषितं न हि परी सहते वनिताङ्गनाम् ॥२१॥
विचिन्त्य महामतयः सदा मदिरारसं त्रिषा परिहरन्ति ॥ १६ ॥ वलिः जितम् इन्धनम् इव मवं ममनदृष्टि चरित्रत्यागुगं वहति । यत् उत्तमैः अपाकृतम् । इह ततः महत परं दुरितं न अस्ति ।। १७ ॥ मदिरारसलस्वितः तमनाः शीर्ष स्पति, विनिम्यताम् इयति, दोषं अयति, गुणम् अपाकुस्ते, गर्व मजति, सदगम् अपास्यति ॥ १८॥ इह यः पनेन प्रचुरदोषकरौं जो वारुणीं परिगृह्य पिवति, असौ मूढमतिः स्फुट बननिन्दितम् सवाम् बसूहरं विषं पिबति ॥ १९ ॥ इह गुमिनिन्दिता मदिरा अङ्गिगणस्य व्यसनभ्रमकारणं यह भमुखं दुषनं बिकनुठे व विषम् गरिः भुजनः परलोपतिः नो वितनुते ॥ २० ॥ जनाविता: मतिषविद्युतिकीतिकपाङ्गमाः सुराङ्गनया नितं परम् मौल्य रुवा इस परिहरन्ति । हि बनिता पराम् अङ्गना म सहते ॥ २१ ।। इह मधिरावशः तं कलहम् मातनुते, येन जीवितं निरस्पति, वृषम् अपास्यते, महं संचिनुते, पनम् अपति,
प्रकार जो मद्य वृद्धिंगत ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप गुणोंको भस्म कर देता है। उसका यहाँ उत्तम पुरुषोंने परित्याम किया है। उससे दूसरा और कोई महापाप नहीं है-वही सबसे बड़ा पाप है ॥ १७ ॥ मदिरासे आक्रान्त मनुष्य विमनस्क होकर-विवेकसे रहित होकर-पवित्र आवरणको छोड़ देता है और निन्ध माचरणको करता है, गुणको नष्ट करके दोषका बाश्रय सेवा है, तथा समोचोन मुखका पात करके गर्वको धारण करता है ॥ १८ ॥ जो मनुष्य यहाँ अनेक दोषोंको उत्पन्न करनेवालो उस मदिराको घनसे ग्रहण करके-खरीद करकेपोसा है वह दुर्बुद्धि स्पष्टतया लोगोंसे निन्दित, प्राण-पासक एवं भयानक तीन विषको पोता है। तात्पर्य यह कि मदिरा प्राणीका विषसे अधिक अहित करनेवाली है ॥ १९॥ प्राणिसमूहके लिये कष्टकारक, संसार परिभ्रमणके कारणभूत जिस दुखदायक दोषको गुणो जनसे निन्दित वह मदिरा करती है उसको न तो विष करता है, न शत्रु करता है, न सर्प करता है, और न राजा भी करता है ॥२०॥ मनुष्योंसे पूजित बुद्धि, पति (धैर्य), कोनि और दया रूप स्त्रियां मनुष्यको मदिरारूप अन्य स्त्रीके वशीभूत देखकर मानो क्रोधसे ही उसे छोड़ देती हैं। ठीक है-एक स्त्री किसी दूसरी स्त्रोका रहना नहीं सहती है ॥ २१ ॥ विशेषार्थ-जो मद्यको पीता है उसको बुद्धि, धैर्य, यश और दया आदि उत्तम गुण नष्ट हो जाते हैं। इसके ऊपर यहां यह उत्प्रेक्षा की गई है कि चूंकि पुरुष बुद्धि आदिरूप उन स्त्रियोंकी उपेक्षा करके मदिरारूप अन्य स्त्रीसे अनुराग करने लगता है इसीलिये ही मानों वै रुष्ट होकर उसे छोड़ देती हैं ॥ २१ ॥ मदिराके वशमें हुआ मनुष्य यहां दूसरोंके
१सत्यज्यति । २ स तदिय । ३ स परिणी। ४ स गुण° । ५ स मृतिति । ६ सङ्गना । ७ स परहरन्ति । चितं ।
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