Book Title: Subhashit Ratna Sandoha
Author(s): Amitgati Acharya, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 156
________________ [ 492 : १९-१३ १४२ सुभाषितसंदोहः 492) श्रुत्वा वानं कथितमपरैर्दीयमानं परेण श्रद्धां धत्ते व्रजति च परां तुष्टिमुत्कृष्टबुद्धिः। दृष्ट्वा दानं जनयति मुदं मध्यमो दीयमानं दृष्ट्वा श्रुत्वा भजति मनुजो नानुराग जघन्यः ॥ १९ ॥ 493) वीर्घायुष्कः शशिसितयशोव्याप्तविषयकवाल: सद्विद्याथीकुलबलषनप्रीतिकोतिप्रतापः । रो धोरः स्थिरतरमना निर्भयश्वारूप स्त्यागी भोगी भवति भविना दामोतिप्रदायी ॥ २०॥ 494) कर्मारण्यं वहति शिखिचन्मातृवत्पाति दुःखात सम्यग्नीति वदति गुरुवत्स्वामिवरद बिति । तस्वातत्स्वप्रकटनपटुः स्पष्टमाप्नोति पूतं तत्संज्ञानं विगलितमलं शानरानेन मर्पः ॥ २१ ॥ मात्मा स्वयं वञ्चितः ॥ १८॥ उत्कृष्टबुद्धिः परेण दीयमानम् अपरैः कथितं दानं श्रुत्वा यदां धत्तं च परां तुष्टि प्रति । | मध्यमः दीयमानं दानं दृष्ट्वा मुदं जनयति । अबन्यः मनुजः (दीयमान) दृष्ट्वा च श्रुत्वा अनुरागं न भजति ॥ १९ ॥ भविनाम् अभीतिप्रदायी देही दीर्घायुष्कः शशिसितयशोव्याप्त दिक्चक्रमल:, सद्विद्याथीकुलवलघनपोतिकीर्तिप्रतापः, सरः, धीरः, स्थिरतरमनाः, निर्भयः चारुरूपः, त्यागी, भोगी भवति ॥ २० ॥ यत् शिखिवत् करण्यं दति, मातृवत् दुःखात् पाति, गुरुवत् सम्यक नीति बदति, स्वामिवत् विति, तत् स्पष्ट, पूतं, विगलितमलं संज्ञान मत्यः तत्त्वातत्वप्रकटनपटुः [ सन् ] आप्नोति ॥ २१ ॥ मत्यः अन्नस्य दानात् दाता, भोक्ता, बहुधनपुतः, सर्वसत्त्वानुकम्पी, सत्सोभाग्यः, मधुरवचनः, जो मूर्ख दान नहीं देता है बह दुर्बुद्धि मनुष्य स्वयं अपने आपको ठगता है-दुर्गसिमें डालता है ॥ १८ ॥ उत्तम वुद्धिका धारक मनुष्य दूसरेके द्वारा दिये जानेवाले दानके विषय में दूसरोंसे की गई प्रशंसाको सुनकर उत्कृष्ट श्रद्धाको धारण करता हुआ अतिशय सन्तोषको प्राप्त होता है। मध्यम बुद्धिका धारक मनुष्य स्वयं या दूसरेके द्वारा भी दिये जानेवाले दानको देखकर हर्षित होता है । परन्तु होनबुद्धि मनुष्य दिये जानेवाले दानको देखकर और सुनकर भी अनुरागको नहीं प्राप्त होता है ।। १९ ।। प्राणियोंके लिये अभयदान देनेवाला मनुष्य लम्बी आयुसे सहित, चन्द्रके समान धवल यशसे दिङ्मण्डलको व्याप्त करनेवाला; सम्पग्ज्ञान, उत्कृष्ट लक्ष्मी, उत्तमकुल, बल, धन, प्रीति, कीति और प्रतापसे संयुक्त; पराक्रमी, धीर, अतिशय दृढ़चित्त, निर्भय, सुन्दर रूपवाला, त्यागी तथा भोगो होता है ।। २० ।। जो सम्यग्ज्ञान अग्निके समान कर्मरूपी वनको जलाता है, माताके समान दुःखसे रक्षा करता है, गुरुके समान समोचीन नीतिको बतलाता है, स्वामीके समान पोषण करता है, और तत्त्व-अतत्त्वके प्रगट करनेमें दक्ष होता है; उस स्पष्ट, पवित्र एवं निर्मल सम्यग्ज्ञानको मनुष्य शानदानके द्वारा प्राप्त करता है ।। २१ ॥ मनुष्य आहारके देनेसे दाता, सुखका भोक्ता, बहुत धनसे सहित, समस्त जीवोंपर दया करनेवाला, पुण्यशाली, मिष्टभाषी, कामदेवसे भी अधिक सुन्दर, विद्वान् और अहंकारसे १ स सानुराग जंपन्याः । २ स "यशो व्याप्त । ३ स वीरः । ४ स भवति । ५ स सस्मि । ६ स. पटुः।

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