Book Title: Subhashit Ratna Sandoha
Author(s): Amitgati Acharya, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
View full book text
________________
.
[453 : १८-४
१२८
सुभाषितसंदोहः 453) धृत्वा धृत्वा वदति तरवः सप्रणाम फलानि
प्राप्त प्राप्तं भुवनभूतये वारि वार्दाः क्षिपन्ति । हत्या हत्वा वितरति हरिवन्तिनः संश्रितेभ्यों
भो' सापना भवति भुवने को ऽप्यपूर्वो ऽत्र पन्थाः ॥४॥ 454) वाघेश्चन्द्रः किमिह कुरुते नाकि मार्गस्थितोऽपि
बसौ ति यति यवयं तस्य हानौ च हानिम् । अज्ञातों या भवति महतः कोऽप्यपूर्वस्वभावो
बेहेनापि वमति' सनुतां येन दृष्ट्वान्यदुःखम् ॥५॥ 455) सत्या वाचा" ववति कुरुते नामांसाम्पनिम्बे
नो मात्सर्य प्रति तनुते नापकारं परेषाम् । नो शप्तोऽपि व्रजति विकृति नैति मन्यु कदाचिस् केनाप्येतन्निगवितमहो चेष्टितं सजनस्प॥६॥
तरवः फलानि धृत्वा धृत्वा सप्रणाम ददति । वार्दाः प्राप्तं प्राप्तं वारि भुवनभूतये क्षिपन्ति । हरिः दन्तिनः हत्वा हत्या संश्रितेम्यः वितरति । भो अत्र भुक्ने सापून कः अपि अपूर्वः पन्थाः भवति ।। ४॥ माफिमार्गस्थितः अपि चन्द्रः इह वार्षे: किं करोति यत् अयं तस्य वृद्धो वृद्धि हानौ च हानि श्रयति । वा महतः शातः कः अपि अपूर्वस्वमावः भवति, मेन अपदुःखं दृष्ट्वा देहेन अपि तनुतां यजति ।। ५॥ [ सज्जनः ] सत्यां वाचां वपति, मात्मषंसान्यनिन्दे न कुहवे, माल श्रयति, परेषाम् अपकारं न तनुते, शप्तः अपि विकृति नो प्रति, कदाचित् मन्युं न एति । अहो केन अपि सज्जनस्य एतब
हाथियोंको बार-बार मार करके आश्रित अन्य प्राणियोंके लिये देते हैं। ठोक है, यहाँ लोकमें सज्जनोंका मार्ग कुछ अपूर्व हो होता है उनकी प्रवृत्ति अनोखी ही होती है ॥ ४ ॥ आकाशमार्गमें स्थित चन्द्र भला समुद्रका क्या करता है जिससे कि वह उसकी (चन्द्रकी) वृद्धि होनेपर बढ़ता है और हानिके होनेपर हानिको प्राप्त होता है । अथवा ठोक ही है-महापुरुषका कोई ऐसा अज्ञात अनुपम स्वभाव होता है कि जिससे वह दूसरोंके दुःखको देखकर शरीरसे भी कृशसाको प्राप्त होता है ॥५॥ विशेषार्थ-सज्जन मनुष्यका ऐसा अनोखा स्वभाव होता है कि जिससे वह दूसरोंके दुखको देखकर दुखी और उनके सुखको देखकर सुखी होते हैं। यह उनका व्यवहार उनके शरीरसे प्रगट होता है। कारण कि जब वे दूसरोंको कष्टमें देखते हैं तो उनका शरीर कृश होने लगता है तथा जब वे अन्य जनको सुखी देखते हैं तो उनका यह शरीर स्वस्थ दिखने लगता है। उदाहरणके रूपमें देखिये कि चन्द्र आकाश में उत्तने ऊपर रहता है जो कि समुद्रका कुछ भी मला बुरा नहीं करता है, फिर भी उसकी वृद्धिको देखकर वह समुद्र तदनुसार शुक्ल पक्षमें वृद्धिको प्राप्त होता है और उसकी हानिको देखकर वह कृष्ण पक्षमें स्वयं भी हानिको प्राप्त होता है । सज्जनोंको इस सज्जनताका परिचय अन्य मनुष्य उनके शरीरको देखकर भले ही प्राप्त कर लें, परन्तु वे स्वयं उसे कभी प्रगट नहीं करते हैं-अन्य जनोंका उपकार करके भी वे कभी उसे दूसरोंमें प्रगट नहीं होने देते ॥ ५॥ जो सज्जन सत्य वचन बोलता है, अपनी प्रशंसा व दूसरेकी निन्दा नहीं करता है, मत्सरताका आश्रय नहीं लेता है-कभी किसीसे इर्ष्या नहीं करता है,
१ स बा २ स सश्रुतेभ्यो, संशृतेभ्यो, संसृतम्यो, सरतम्यो। ३ स om. मो, adds वा । ४ स भवने । ५स मार्गे । ६ स यदियं । ७ स om. तस्य । ८ से ज्ञातो । १ स om. व्रजति ७ प्रति in Virar 61 १० स सत्यं । ११ स वाचं। १२ स तापकारं। १३ स नि for नो । १४ स मान्यं, मन्य।