Book Title: Subhashit Ratna Sandoha
Author(s): Amitgati Acharya, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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सुभाषितसंदोहः 480) साक्द्यत्वान्महवपि फलं न विधातुं समर्म
कन्यास्वर्णद्विपहयषरागोमाहिण्याविवानम् । त्यक्त्वा' वद्याग्जिनमतदयाभेषजाहारदानं
भरवाप्यल्पं विपुलफलदं दोषमुक्त नियुक्तम् ॥७॥ 481) नीतिश्रीतिश्रुतिमतितिज्योतिभक्तिप्रतीति
प्रीतिज्ञातिस्मृतिरतियतिल्यातिशक्तिप्रगीतीः । यस्मादेहो जगति लभते नो विना भोजनेन
तस्माद्दान स्पुरिह बदता ताः समस्ताः प्रशस्ताः॥८॥ 482) वर्पोद्रेकव्यसनम नकोषयुतप्रवाषा
पापारम्भः क्षितिहतषियां जायते यन्निमित्तम् । 'यत्संगृह्य श्रयति विषयान् दुःखितं यत्स्वयं स्या'घदुःखाडप प्रभवति न तच्छलाध्यते ऽत्र प्रदेयम् ॥९॥
महिष्यादि दानं महदपि साववत्वात् फलं विधातुं समर्थ नो भवति । तत् त्यक्त्वा दोषमुक्तम् अल्पं भूत्वापि विपुलफलद जिनमतदयाभेषजाहारदानं नियुक्तं दद्यात् ।। ७ ।। यस्मात् देही जगति भोजनेन विना नीतिश्रीतिथुतिमतितिज्योतिभक्तिप्रतीति-प्रीतिज्ञातिस्मृतिरतियतिख्यातिशक्तिप्रगीती: नो लभते, तस्मात् इह दानं ददता [तः ] ताः समस्ताः प्रशस्ताः स्यु.॥८॥ यनिमित्तं क्षितिहतधियां वर्षोदेकण्यसनमथनकोषयुद्धप्रबाघापापारम्भः जायते, पत्संगृह विषयान् श्रर्यात, यत्स्वयं दुःखित स्यात्, यत् दुःखाढ्यं प्रभवति, अत्र तत् प्रदेयं न इलाध्यते ।। ९॥ यद् गृहीत्वा साघुः निजिताक्षः रत्न
के धारण करनेमें समर्थ होते हैं ।।६।। कन्या, सुवर्ण, हाथी, घोड़ा, पृथिवी, गाय और भैंस आदिका दान अधिक प्रमाणमें हो करके भी उत्तम फलके करने में समर्थ नहीं है; क्योंकि, वह पापोत्पादक है। इसलिये उपयुक्त दानको छोड़कर जिन भगवान्के द्वारा निर्दिष्ट दया ( अभयता ) औषध और आहारका दान देना चाहिये । कारण कि जिनेन्द्र द्वारा नियुक्त ( आदिष्ट ) यह दान अल्प मात्रामें भी होकर निर्दोष होनेसे महान् फलको देनेवाला है ।। ७ ।। चूंकि संसारमें प्राणी भोजनके बिना नीति, परिपक्वता श्रुत, बुद्धि, धैर्य, ज्योति, भक्ति, ज्ञान, प्रीति, शाति, स्मरण, रति, संयम, प्रसिद्धि, शक्ति और प्रगीति ( गानप्रकर्षता ) को नहीं प्राप्त कर सकता है अतएव उस भोजनका दान करना चाहिये । उक्त आहारके देनेसे प्राणोके वे सब प्रशस्त गुण प्राप्त होते हैं ।। ८ ॥ जिस देय वस्तुके निमित्तसे अयसे प्रतिबद्ध बुद्धिवाले पात्रोंके अभिमानकी बुद्धि, कष्ट, आकुलता, क्रोध, युद्ध, प्रकृष्ट । बाषा और पापका आरम्भ होता है। जिसका संग्रह करके जोव विषयोंका बाश्रय लेता है, तथा जो स्वयं दुखित होता हुआ दुखसे व्याप्त जीवको प्रभावित करता है, उस देय वस्तुको यहाँ प्रशंसा नहीं की जाती है । अभिप्राय यह है कि जिस आहार आदिके ग्रहण करनेसे संयमी जनके आकुलता या अशान्ति उत्पन्न हो सकती है, विवेकी दाताको ऐसे किसी आहार आदिको दान नहीं करना चाहिये ॥ २॥ जिस देय वस्तुको ग्रहण करके इन्द्रियोंपर विजय प्राप्त करता हुआ साधु रत्नत्रयमें लीन हो जाता है, समस्त कल्याणकी जड़स्वरूप निर्मल धर्मको धारण
१स पूत्वा । २ स वियुक्तं । ३ स प्रगीतिः। ४ समयनं । ५ स रंभ, रंभा, रम्भक्षितिहिति । ६ स तस्संगृह्य । ७ स श्रब्यति । ८ स om, यद् । १ स दुःखाचं ।