Book Title: Subhashit Ratna Sandoha
Author(s): Amitgati Acharya, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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१७. दुर्जननिरूपणचतुर्विशतिः 429) वाक्यं जल्पति कोमलं सुखकर रुस्यं करोत्यन्यथा
वक्रत्वं न जहाति जातु मनसा सो मचा दृष्टषोः । नो भूति सहते परस्प न गुणं जानाति कोपाकुलों
यस्तं लोकविनिन्वितं खलबनं कसत्तमः सेवते ॥४॥ 430) नीचोच्चाविविवेकनाशकुभलो राधाकरोदेहिना
माशाभोगनिरासनो मलिनता छानात्मला मल्कमः । सदृष्टिप्रसरावरोधनपटुमित्रप्रतापाहतः
फूल्याकूस्थविदा प्रदोषसाशो बज्यः सदा जंगः ॥५॥ 431) वान्तध्वंसपरः फलतितनुमिक्षयोत्पादक:
पदमाशी कुमुवप्रकाशनिपुगो सेवाकरो यो बरः। कामोद्गरसः समस्तविना लोक निझामाबवत
कस्तं नाम जनो महासुलकर जानाति नो दुर्जनम् ॥ ६ ॥ सर्पः यया मनसा वक्रत्वं जातु न जहाति, परस्य भूति भो सहते, कोपाकुमः मुगं न जानाति तं लोकप्रिनिन्दितं सामजनं : ससमः सेवते ॥ ४ ॥ कृत्याकृत्यविदा नीबोच्याविविवेकनाकुसला देहिनां बाधाकरः, गाशाभोमनिरासनः, मलिनताम्नारमना वल्लमः, सदृष्टिप्रसरावरोषनपटुः, मित्रप्रतापाहतः, प्रदोषसदृशाः दुर्जनः सदा वयः ॥ ५॥ यः दुर्जनः निसानापवत् व्यान्तम्बंसपरः, काततनुः, वृद्धिक्षयोत्पादकः पद्याधी, कुमुदप्रकानिपुमः, दोषाकरः महः (अस्ति), लोके समस्तमविनां कामोदेगरसः तं महासुखकर दुर्जनं कः नाम जनः नो पानाति ॥ ६॥ यः दुष्टः सुखेन अन्वितम् अपरं पश्यन् दुःस्वं दुष्ट बुद्धि सर्पके समान मनसे कभी कुटिलताको नहीं छोड़ता है, जो दूसरेके वैभवको सहन नहीं करता है, तपा जो क्रोषसे व्याकुल होकर दूसरेके गुणको नहीं जानता है-कृतमता नहीं प्रगट करता है। उस लोक निन्दित तुष्ट जनकी सेवा भला कौन-सा सज्जन करता है? कोई नहीं करता ॥ ४ ॥ दुर्जन पुरुष प्रदोषकालरात्रिके पूर्व भागके समान है-जिस प्रकार प्रदोष कालमें कुछ बंधेरा रहनेसे नीची ऊंची पृथिवीका बोष नहीं हो पाता है उसी प्रकार दुर्जनके संसर्गमें रहनेसे नीच-ऊँच जनका ( अथवा मले-बुरे कार्यका) विवेक नहीं हो पाता है, जिस प्रकार ठीक-ठीक वस्तुओंको न देख सकने के कारण प्रदोष काल प्राणियोंको वाधा पहुंचाता है उसी प्रकार कुमार्गमें प्रवृत्त करा कर वह दुर्जन भी प्राणियोंको बाषा पहुँचाता है, जिस प्रकार प्रदोष काल आशा भोगकोदिशाओंके उपभोगको नष्ट करता है उसी प्रकार दुर्जन भी आशा भोगको आशा (इच्छा ) और भोग ( सुख ) को नष्ट करसा है, जिस प्रकार प्रदोष काल मलिन प्राणियोंको-चोर आदिको अच्छा लगता है उसी प्रकार दुर्जन मनुष्य भी मलिन प्राणियोंको-पापाचारियोंको बच्छा लगता है, जिस प्रकार समीचीन दृष्टि (निगाह) के विस्तारके रोकनेमें प्रदोष काल निपुण होता है उसी प्रकार दुर्जन भी समीचीन दृष्टि (सम्यग्दर्शन) के विस्तारके रोकने में निपुण होता है, तथा जिस प्रकार मित्र (सूर्य) के प्रतापसे प्रदोषकाल पीड़ित होता है-नष्ट होता है उसी प्रकार वह दुर्जन भी मित्र (बन्ध) के प्रभावसे पीड़ित होता है-दूर होता है। इसीलिये जिस प्रकार उत्तम कार्योंमें वह प्रदोष काल हेय माना जाता है उसी प्रकार इस दुष्टको भी हेय मानकर कार्यअकार्यके जानकार सज्जन पुरुषों को उससे सदा दूर रहना चाहिये ॥५॥ जो जड़ दुर्जन चन्द्रमाके समान ध्वान्त ध्वंसपर, कलंकित शरीरवाला, वृद्धि हानिजनक, पद्माशी, कुमुद प्रकाशमें चतुर, दोषाकर और समस्त
१स जहातु । २ स "कुले । ३ स लोकनिन्दित । ४ स मलिनमा', मलिनिमा । ५ स हत। ६ स पनासी,
पद्याश्री।