Book Title: Subhashit Ratna Sandoha
Author(s): Amitgati Acharya, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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436 : १७-११]
१७. दुर्जननिरूपणचतुविंशतिः 434) दोषेषु स्वयमेव दुष्टधिषणो यो वर्तमानः सवा
तत्रापानपि मन्यते स्थितियतस्त्रलोक्यवर्त्यङ्गिनः । कृत्यं निन्दितमातनोति वचनं यो दुःश्रवं जल्पति
चापारोपितमार्गणादिव खलात् सन्तस्ततो बिभ्यति ॥९॥ 435) यो ज्येषां भषणोद्यतः श्वशिशुवच्छिन्द्रेक्षणः सर्पव
वग्राह्यः परमाणुवन्मुरजवक्त्र येनान्वितः । नानारूपसमन्वितः सरट धद्वको भुजंगेशवत
कस्यासोन करोति वोषनिलयश्चित्र व्या वर्जतः ।।१०।। 4361 गाढं शिलष्यति वरतोऽपि करते ऽभ्युत्थानमाद्वेक्षणो
दसे ऽर्घासनमातनोति मधुरं वाक्यं प्रसन्नाननः। 'चित्तान्तर्गतवञ्चनो विनयवान् मिथ्यावषिष्टधी? दुःखामृतभर्मणा विषमयो मन्ये कृतो दुर्जनः ॥ ११ ॥
वतः मन्यते । यः निन्दितं कृत्यम् आतनोति, च दुःश्रवं वां जल्पति, सन्तः चापारोपितमार्गणादिव ततः हलात बिभ्यति ॥९॥ यः श्वशिशुवत् अन्येषां भषणोद्यतः, सपंवत् छिद्रेक्षणः, परमाणुवत् अग्राह्मः, मुरजवत बक्ये न अन्यितः, सरटवत् नानारूपसमन्वितः जङ्गेशवत् वक्रः, दोषनिलयः, असो दुर्जनः, कस्य चित्रव्यथां न करोति ।। १०॥ य: दूरतः अपि आद्रेक्षणः अभ्युत्थानं कुरुते, गावं श्लिष्यति, अर्षासनं दत्ते, प्रसन्नाननः मधुरं वाक्यम् आतनोति । चित्तान्तर्गतवञ्चनः,
गुणको नहीं करता है; इसके अतिरिक्त जो योग्य-अयोग्यके विचारसे रहित होकर धर्म कार्योको नष्ट करता है ऐसे उस दुर्जनको समस्त संसारको आनन्दित करनेवाले गुणोंसे संयुक्त भी कोई मनुष्य समझानेके लिये समर्थ नहीं हो सकता है ।॥ ८॥ जो दुर्बुद्धि दुर्जन निरन्तर स्वयं ही दोषोंमें स्थित रहता है और दूसरे भो तीनों लोकोंके प्राणियोंको उक्त दोषों में स्थित समझता है अपने समान दूसरोंकों भो दुष्ट मानता है, तथा जो घृणित कार्यको करता है और श्रवणकटु वचनको बोलता है, उस दुर्जन मनुष्यसे सज्जन मनुष्य धनुष पर चढ़ाए हुए बाणके समान डरते हैं ।। ९ ॥ जो दुर्जन कुत्ताके बच्चे (पिल्ले ) के समान दूसरों के प्रति भोंकनेमें उद्यत होता है, सर्पके समान छिद्रको ढूंढता है, परमाणुके समान अग्राह्य है, मृदंगके समान दो मुखोंसे सहित है, सरड ( गिरगिट ) के समान अनेक रूपवाला है तथा रार्पराजके समान कुटिल है; वह अनेक दोषोंका स्थानभूत दुर्जन किसके चित्तको दुखी नहीं करता है--सभीके मनको खिन्न करता है ।। १० ॥ विशेषार्थ-जिस प्रकार कुत्ता दूसरोंको देखकर भोंकता है-गुर्राता-उसी प्रकार दुर्जन भी दूसरोंको देखकर गुर्राता है-क्रोधित होता है, जिस प्रकार सर्प छिद्र ( बिल) के खोजने में उद्यत रहता है उसी प्रकार दुर्जन भी छिद्र ( दोष ) के खोजने में उद्यत रहता है। जिस प्रकार परमाणु सूक्ष्म होनेसे इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण नहीं किया जा सकता उसी प्रकार दुर्जन भी गूढहृदय होनेसे दूसरोंके द्वारा ग्रहण नहीं किया जा सकता है-उसके अभिप्रायको दूसरे जन नहीं जान सकते हैं। जिस प्रकार मृदंग दो मुखवाला होता है दोनों ओरसे शब्द करता है उसी प्रकार दुर्जन भी दो मुखवाला होता है-वह जो कुछ कहता है उसे बदल जाता है और फिर उससे विपरीत कहने लगता है, जिस प्रकार
सङ्गिनां। २ स योनेपा । ३ स ग्राह्य। ४ स टुक्र । ५ स शरद । ६ स चित्त । ७ स दत्त्वा । ८ स चिन्ता।