Book Title: Subhashit Ratna Sandoha
Author(s): Amitgati Acharya, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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सुभाषितसंवोहा.
[432 . १७-७ 432) दुष्टो यो विदधाति दुःखमपरं पश्यन्सुखेनान्वित
दृष्ट्वा तस्य विभूतिमस्तधिषणो हेतुं विना कुप्यति । वाक्यं जल्पति किचिदाकुलमना दुःखावह यन्नृणां
तस्माद्बुजंनतो विशुद्धमतयः काण्या'चया बिभ्यति ॥७॥ 433) यस्त्यक्त्वा गुणसंहति वितनुते गृह्णाति दोषान् परे
दोषानेव करोति जातु न गुणं त्रेधा' स्वयं दुष्टीः । युक्तायुक्तविचारणाविरहितो विध्वस्त धमकियो
लोकानन्विगुणो ऽपि को ऽपि न खलं शक्नोति त बोधितुम् ॥ ८॥ विदधाति, तस्य विभूतिं दृष्ट्वा अस्तधिषणः हेतुं विना कुम्यति, आकुलभनाः नृणां दुःखावह यत् किञ्चित् वाक्यं जल्पति । विशुद्धमतयः तस्मात् दुर्जनतः काण्डात् यथा बिम्धति ।। ७ ।। युक्तायुक्तविचारणाधिरहितः विध्वस्तधर्मक्रियः यः दुष्टधी. स्वयं गुणसहति त्यक्त्वा धा दोषान् वितनुते, गृह्णाति, परे दोधानेव करोति, गुणं जातु न। लोकानन्दिगुणोऽपि कोऽपि तं खलं बोधितुं न शक्नोति ॥ ८॥ दुष्टधिषणः यः स्वयमेव दोषेषु सदा वर्तमानः तत्र बन्यान त्रैलोक्यवङ्गिनः अपि स्थिति
प्राणियोंको कामोद्वेगरस है उस महादुखदायी दुर्जनको लोकमें कौन मनुष्य नहीं जानता है ? अर्थात् सब हो जानते हैं ।। ६ ।। विशेषार्थ-यहां दुर्जनकी तुलना चन्द्रमासे की गई है । यथा--जिस प्रकार चन्द्रमा ध्वान्तध्वंसपर अर्थात् अन्धकारके नष्ट करनेमें तल्लीन है उसी प्रकार दुर्जन भी ध्वान्सध्वंसपर अर्थात् अज्ञानरूप अन्धकारको नष्ट करनेवाले सज्जनोंसे भिन्न है, जैसे कलंकयुक्त शरीरवाला चन्द्रमा है वैसे ही दुर्जन भी कलंकयुक्त ( दोषयुक्त ) शरोरवाला है, जिस प्रकार चन्द्रमा वृद्धि क्षयका उत्पादक-पनी कलाओं अथवा समुद्रको वृद्धि और हानिका जनक है उसी प्रकार दुर्जन भी वृद्धिक्षयका उत्पादक-दूसरोंके अभ्युदयका नाशक होता है, चन्द्रमा यदि पद्माशी-कमलोंको मुकुलित करनेवाला है तो दुर्जन भी पद्माशी-पद्मा ( लक्ष्मी ) को नष्ट करनेवाला है, जिस प्रकार चन्द्रमा कुमुद प्रकाश निपुण है-श्वेत कमलोंक विकसित करनेमें चतुर है- उसी प्रकार दुर्जन भी कुमुदप्रकाशनिपुण है-कुमुद ( कुत्सित हर्ष ) को प्रकाशित करने में चतुर है, जहाँ चन्द्रमा दोषाकर---रात्रिका करनेवाला है वहाँ दुर्जन दोषोंका आकर ( खानि ) है, चन्द्रमा यदि जह है-ड और ल में भेद न रहनेसे जलस्वरूप है तो दुर्जन भी जड़ ( मूर्ख ) है, तथा जैसे चन्द्रमा समस्त प्राणियोंके लिये कामके उद्वेगमें आनन्द उत्पन्न करता है वैसे ही दुर्जन भी कामके उद्वेगमें आनन्द मानता है । इस प्रकार जब वह दुर्जन प्रसिद्ध चन्द्रमाके समान है सब भला उससे कौन अपरिचित होगा? कोई नहीं। अभिप्राय यही है कि विवेकी जनको अनेक दोषोंके स्थानभूत एवं कुमागंमें प्रवृत्त करनेवाले उस दुर्जनको संगतिको अवश्य छोड़ना चाहिये ॥ ६ ॥ जो दुष्ट पुरुष दूसरेको सुखसे युक्त देखकर उसे दुखी करता है, जो उसकी विभूतिको देखकर विवेकसे रहित होता हुआ अकारण ही क्रोषको प्राप्त होता है, और जो व्याकुलचित्त होकर मनुष्यों के लिये दुःख पहुंचानेवाले जैसे तैसे वचन बोलता है; उस दुष्ट पुरुषसे निर्मल बुद्धि मनुष्य ऐसे डरते हैं जैसे कि लोग बाणसे डरते हैं ।। ७ 1। जो दुर्बुद्धि दुर्जन मनुष्य गुण समूहको छोड़ कर दोषोंका विस्तार करता है व उन्हींको ग्रहण करता है तथा जो दूसरेके विषयमें मन, वचन एवं कायसे दोषोंको ही करता है स्वयं कभी
१स पश्यत्सु । २ स वाच्यं । ३ स तन्नृणां । ४ स काण्ड्या', कोडापषा । ४ स यस्त्यक्ता । ६ स धास्त्रयं । ७ स विष्वस्तधमक्रिया । ८स सं for तं ।