Book Title: Subhashit Ratna Sandoha
Author(s): Amitgati Acharya, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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365 : १४--२३ ]
१४. देवनिरूपणद्वात्रिंशत ___360) विषदो ऽपि पुण्यभाजां जायन्ते' संपदो ऽत्र जन्मवताम् ।
पापविपाकाद्विपदो जायन्ते संपदो ऽपि सवा ॥ १८॥ 361) चित्रयति यन्मपूरान् हरितयति शुकान् अकान् सितोफुरुते।
कमेव तत्करिष्यति सुखासुखं कि मनःखेवैः ॥ १९ ॥ 362) अन्यत् कृत्यं मनुश्चिन्तयति विवानिशं विशुद्धधिया ।
वेघा विदधात्यन्यत् स्वामोव न शक्यते धतुंम् ॥ २० ॥ 361) द्वीपे जलनिधिमध्ये गहनक्ने वैरिणां समहे ऽपि ।
रक्षति मत्यं सुकृतं पूर्वकृतं भूत्यषत सततम् ॥ २१ ॥ 364) नश्यतु यातु' विदेश प्रविशतु घरणीतलं खमुत्पततु ।
विदिशं दिशं तु गच्छतु नो जीवस्त्यज्यते विधिना ॥ २२ ॥ 365) शुभमशुभं च मनुष्यैर्यत्कर्म पुराजितं विपाकमितं ।
तवभोक्तव्यमवश्यं प्रतिषेधे शक्यते केन ।॥ २३ ॥
रूपे अपि यातं रत्नं जन्मवता योजयति ।। १७ ।। अत्र पुण्यभाजा जन्मवतो विपदः अपि संपदा जायन्ते । सवा पापविणाकात संपदः अपि विपद: जायन्ते । १८ ।। यत् मयूरान् वित्रयत्ति, शुकान् हरितयति, बकान् सितोकुख्ते तत कर्म एव सुखासुखं करिष्यति । मनःखेदैः किम् ।। १९ ।। मनुजः विशुद्धधिया दिवानिशम् अन्यत् कूरयं चिन्तयति । षाः अन्यत् विदधाति सः स्वामी इव धम् न शक्यते ।। २० ॥ द्वीपे जलनिधिमध्ये गहनवने वैरिणां समूहे अपि मस्यं पूर्वकृतं सकतं भत्यवत सततं रक्षति ।। २१ ।। जीवः नश्मतु, विदेश यातु, धरणीतलं प्रविशतु. खम् उत्परातु, विदिशं दिशं गलत । तु विधिना नो स्यज्यते ॥ २२ ॥ मनुष्य पुरा शुभम् अशुभं च यत् कर्म अर्जितम्, विपाकम् इतं तत् अवश्यं भोक्तव्यम् । केन प्रतिषेध
शाली जीवोंकी विपदा भी सम्पदा बन जाती है। और पाप कर्मके उदयसे संपदा भी विपदा बन जाती है ।। १८ ।। जो दैव मयूरोको चित्र विचित्र रंगवाला बनाता है, तोतोंको हरा और बगुलोंको सफेद बनाता है। वहो देव प्राणियोंको सुखी और दुःखी बनाता है। व्यर्थ खेद करनेसे क्या लाभ है ? | १९ ॥ मनुष्य विशद्ध बुद्धिसे रात दिन कुछ अन्य ही करनेका विचार करता है। किन्तु यह देव कुछ अन्य ही कर देता है। अर्थात मनुष्य जो सोचता है वह नहीं होता। और जो उसने सोचा भी न था वह हो जाता है। यह सब देवका खेल है। वही जीवका स्वामी है उसे कोई रोक नहीं सकता। विशेषार्थ-यद्यपि देवका निर्माण स्वयं जीव ही करता है किन्तु फिर वही जीवका विधाता हो जाता है और उसके सामने जीवको एक नहीं चलती ॥२०॥ पूर्व जन्ममें जो पुण्य कर्मका संचय किया है वह मनुष्यको द्वीपमें, समुद्रके मध्यमें, गहन वनमें, और शत्रओके समूहमें सदा सेवककी तरह रक्षा करता है। अर्थात् यदि देव शुभ कर्म रूप होता है तो नौवका शभ करता है और यदि अशुभरूप होता है तो जोवका अनिष्ट करता है ।। २१ ॥ प्राणो मर जाये, या विदेश चला जाये या पृथ्वीमें समा जाये या आकाशमें उड़ जाये या दिशा विदिशामें चला जाये किन्तु देव उसका पीछा नहीं छोड़ता ॥ २२ ॥ मनुष्योंने पूर्व में जिस शुभ या अशुभ कर्मका उपार्जन किया है वह जब स्वयमें आता है तो
१ स जायते, जायाते। २ स स्वामी च । ३ स पूर्वकृत् । ४ स om. यातु । ५ स दिशन्तु । ६ स त्यजते । ७H प्रतिषेधुप्रधिपघं।