Book Title: Subhashit Ratna Sandoha
Author(s): Amitgati Acharya, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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374 : १४-३२]
१४. देवनिरूपणद्वात्रिंशत् 372) नश्यति हस्तादर्थः पुष्यविहीनस्य देहिनो लोके ।
दूरादेत्य करस्थं भाग्ययुजो जायते रत्नम् ॥ ३०॥ 373) कस्यापि कोऽपि कुरुते न सुख कुःख व देवमपहाय।
विवधाति वृथा गर्ष खलो हमाहितस्य हन्तेति ॥३१॥ 374) गिरिपसिराजसानुमधिरोहतु यातु सुरेन्द्रमविरम्
विशतु समुद्रपारि परणीतलमेकषिया प्रसपंतु। गगनतलं प्रयातु विवधातु सुगुप्तमनेकषायुषैस्तदपि न पूर्वकर्म सततं बस मुञ्चति देहधारिणम् ॥ ३२ ।।
इति वेवनिरूपण'वात्रिशत समाप्ता ॥१४॥ हस्तात् अर्थः नश्यति । भाम्ययुजः रत्नं दूरात् एत्य करस्थं जायते ॥ ३० ॥ देवम् अपहाय को ऽपि कस्यापि सुखं दुःखं च न कुरुते । खलः अहं अहितस्य हन्ता इति वृथा गर्व विदधाति ॥ ३१ ।। गिरिपतिराजसानुम् अपिरोहतु । सुरेन्द्रमन्दिरं मातु । समुद्रपारि विशतु । एकधिया धरणीतलं प्रसपंतु । गगनतलं प्रपातु । अनेकधा आयुषः सुगुप्तं विदधातु । तदपि सततं पूर्वकर्म देहधारिणं न मुश्चति बत ॥ ३२ ॥
इति देवनिरूपणम् ।। १४ ॥ मित्र भी शत्रु हो जाते हैं। और अमृत भी विष हो जाता है। विशेषार्थ--रामचन्द्रजी अशुभ कमका उदय होने पर लोक विश्रुतिके अनुसार सोनेके मृगके पीछे दौड़ पड़े। यह बुद्धि विनाशका उदाहरण है। द्वारिकाके जलने पर श्रीकृष्ण और बलदेवने आग बुझानेके लिये समुद्रका जल फेंका तो वह तेलकी तरह जलने लगा। यह अमृतके विष होनेका उदाहरण है ॥ २९ ॥ इस लोकमें पुण्यहीन मनुष्यके हाथमें रखा पदार्थ भी नष्ट हो जाता है। और भाग्यशालीके दूरसे बाकर रत्न हाथमें आ जाता है ॥ ३० ॥ देवके सिवाय कोई भी किसीको सुख या दुःख नहीं देता। मूर्ख पुरुष व्यथं ही गर्व करता है कि मैंने उसको मार दिया या जिला दिया ॥३१॥ यह मनुष्य सुमेरुपर्वतके शिखर पर चढ़ जाये या देवेन्द्रके मन्दिरमें चला जाये, या समुद्रके जलमें प्रवेश कर जाये, या पृथ्वी तलमें समा जाये, या आकाशमें उड़ जाये या अनेक प्रकारके अस्त्र शस्त्रोंसे अपनी रक्षा कर ले । फिर भी इस प्राणीको पूर्वमें किया कम कभी भी नहीं छोड़ता ॥ ३२ ॥
इस प्रकार बत्तीस श्लोकोंमें देवका निरूपण समाप्त हुआ।
१ स भाग्ययुतो । २ स पथा। ३ स हतोपि । ४ स मुघते, मुञ्चत । ५ स धारिणम् । ६ स °निरूपणम् ।