Book Title: Subhashit Ratna Sandoha
Author(s): Amitgati Acharya, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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[400 : १५-२६
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सुभाषितसंदोहः 399) श्रीममितगतिसौख्यं परमं परिहरति मानमपहन्ति ।
विरमसि वृषतस्तनुमानुदरदरीपूरणासक्तः ॥ २५ ॥ 400) शुभपरितोष वारिपरिषेकबलेन यतिः सुदुःसहं
शमयति यः कृतान्तसमचेष्टितमुत्थितमोदरानलम् | व्रजति स रोगशोकमदमत्सरःखवियोगजितं विगलितमृत्युजन्म मपविघ्नमन मनन्तमास्पवम् ॥ २६ ॥
इति जठरनिरूपणषड्विंशतिः ॥ १५ ॥
वह्निः न शाम्यते' तावत् पापं कुरुते । यतयः धृतियारिणा तं शमित्वा पापतः विरताः ।। २४ ।। उदरदरीपूरणासक्तः तनुमान् परमं श्रीमदमितगतिसौख्यं परिहरति, मानम् अपहन्ति, वृषतः विरमति ॥ २५ ।। मः यतिः शुभपरितोषवारिपरिषेकबलेन सूदुःसहं कृतान्तसमचेष्टितम् उत्थितम् औवरानलं शमयति सः रोगशोकमदमत्सरदूःखवियोगजितं विगलितमृत्युजन्मम् अपविघ्नम् अनम अनन्तम् आस्पदं व्रजति ।। २६ ॥
इति जठरनिरूपणम् ॥ १५ ॥
को टालकर ही भोजन ग्रहण करते हैं ॥ २३ ।। मनुष्य तभी तक पाप करता है जब तक उसकी उदराग्नि शान्त नहीं होती। अर्थात् उसको शान्त करनेके लिये ही मनुष्य पापाचरण करता है। इसलिये मुनीश्वर उस उदराग्निको धैर्यरूपी जलसे शान्त करके पापसे विरत रहते हैं ॥ २४ ॥ जो इस उदररूपी गढ़ेको ही भरनेमें लगे रहते हैं उसीके पीछे जीवन बिता देते हैं वे अमितगति-मोक्षगतिके उत्कृष्ट सुखसे वंचित रहते हैं, अपनी मान मर्यादाको नष्ट करते हैं और धर्मसे हाथ धो बैठते हैं ॥ २५ ।। जो यति सन्तोषरूपी जलके सिंचनके बलसे अत्यन्त दुःसह और यमराजके समान चेष्टावाली प्रज्ज्वलित हुई पेटकी आगको शान्त करता है । वह अनन्त सुखके भण्डार ऐसे निर्विघ्न स्थानको प्राप्त होता है जहाँ रोग, शोक, मद, डाह, दुःख और वियोग नहीं होते तथा जन्म-मरण भी नहीं होता | अर्थात् मुक्तिपुरीको प्राप्त करता है ।। २६ ।।
इस प्रकार छब्बीस पद्यों से जठरका निरूपण समाप्त हुआ।
१ सशक्तः । २ साभसंतो° । ३स सरोग' । ४ स जननमप, मनथम । ५ स निरूपणम् ।