Book Title: Subhashit Ratna Sandoha
Author(s): Amitgati Acharya, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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286 : ११-१८}
११. जरानिरूपणचतुर्विंशतिः 284) शिरसि निभृतं कृत्वा पादं प्रपातयति' द्विजान्
पिवति रुधिरं मांस सर्व समत्ति शरीरतः'। स्थपुरविषमं चर्माङ्गाना बघाति शरीरिणा
विचरति जरा संहाराय विस्ताविव राकासी ॥ १६ ॥ 285) भुवनसवनप्राणिग्रामप्रकम्पविधायिनी
पनिकुचिततनु माकारा जरा जरति स्था। निहितमनसं तुष्णानार्या निरोक्य नरं भूश
पलितमिषतो जातेष्या' वा करोति कधग्रहम् ॥१७॥ 286) विमवमृषिवल्ट्रीकण्ठं वा गवाक्तिविग्रह
शिशिरकरवतका वेषं विरूपविलोचनम् । रविमिव तमोयुक्तं बण्याधित च यम यमा
वृषमपि विना मत्य निन्या करोतितरा परा॥ १८ ॥ स्खलयति । स्पष्टम् अर्थ विलोकयितुं न मा । परिमवातः सर्वाः चेष्टाः अनिवारिता. तनोति । नृणां देहं परिम्भते ॥१५॥क्षितो राक्षसी इव जरा शिरसि निभृतं पा था दिवान् प्रपातयति । शरीरतः रुधिरं पिबति । स मांसं समत्ति वर्माङगनां स्थपुटविषम पधाति । (एव) शरीरिणा संहाराय विवरति ।। १६॥ भुवनसदनप्राणिग्रामप्रकम्पषिधायिनी नि विततनुः भीमाकारा जरती जरा, स्पा तृष्णानार्या निहितमनसं नरं निरीक्ष्य जातेा, पलितमिषतः वा भृशं कवग्रहं करोति ॥ १७ ॥ निन्द्या जरा वृष विना अपि मत्यं ऋषिवत् विमद, श्रीकण्ठं वा गतिविग्रह, शिशिरफरवद् सत्र, वेषं विकहै। मार्गमें लोगोंकी गति-स्थितिमें रुकावट डालती है। सत्य-असत्य, न्याय-अन्यायका विचार करने में समर्थ नहीं होती। इस प्रकार परिभव-अपमान-तिरस्कार करनेवाली ही सब वेष्टायें करती है । उससे उसको कोई भी निवारण नहीं कर सकता। उसी प्रकार यह वरा भो पंचेंद्रियोंके विषयोंको सेवनको सघ इच्छा करती है । चलते समय दंडयष्टीका आश्रय लेती है । मार्गमें चलने में खड़े रहने में रुकावट पैदा करती है। दृष्टि मन्द होनेसे पदार्योको स्पष्ट देखनेमें असमर्थ होती है । इस प्रकार वृद्धावस्थामें पुरुषको सब चेष्टायें उसके उपहासका ही कारण बनती हैं। यह जरा अनिवार्य है। उसका कोई भी निवारण नहीं कर सकता ॥ १५ ॥ जिस प्रकार पृथ्वी पर राक्षसी मनुष्यके संहारके लिये विचरण करती है। वह ब्राह्मण-क्षत्रिय वैश्योंको नीचे दबाकर उनके शिर पर पांव रखती है । उनका रक्त-पीती है। सब मौस खाती है। चर्म-अंगको तितर-विसर कर फेंक देती हैं । उसी प्रकार वृद्धावस्था भी प्रथम शिर पर पैर रखकर केशोंको सफेद कर देती हैं । द्विज-दांतोंको गिराती है। फिर खूनको सुखा डालती है । मांसको भी सुखा डालती हैं। केवल हड्डी हो शेष रह जाती है। शरीर चर्मको मुरीदार कर देती है । इस प्रकार जरास्पी राक्षसी मनुष्यके संहारके लिये ही पृथ्वी पर संचार करती है । १६ ।। जिस प्रकार कोई स्त्री अपनी सौतको अपने पतिके साथ आलिंगन करते देखकर ईर्ष्यासे कुपित होकर रुद्ररूप धारण कर अपने पतिके केशोंको पकड़ लेती है। और इस प्रकार सब कुटुबी जनोंके धारीरमें कपकपी पैदा कर देती हैं। उसी प्रकार यह जरारूपी स्त्री अपनी सौत तृष्णारूपी नारीमें आसक्त पुरुषको देखकर ईषसे मानों उसके केश पलित करनेके मिषसे उसके केशोंको पकड़ती हैं। उससे संसारके सब प्राणियोंके शरीरमें कंपकपी पैदा कर देती है ॥ १७ ।। यह निंदनीय जरा विना ही धर्म किये मनुष्यको देवोंका स्वरूप
१स प्रतापतयति, प्रयातयप्ति । २ स शरीरिणां । ३ स चम्मगिना, गणां । ४ स दधति । ५ स कुरिततर्भमा । ६ स भार्यां । ७ स जाते, ज्ञातेय, जतेा । ८ स "मृषवच्छीकठं । ९ तमोमुक्तं ।