Book Title: Subhashit Ratna Sandoha
Author(s): Amitgati Acharya, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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[331 : १३-१३
सुभाषितसंबोहः 329) इमा रूप'स्थानस्यजन'सनयद्रव्यवनिता'
सुतालक्ष्मीकोतिअतिरति मतिप्रोतिषतयः । मदान्धस्त्रीनेत्रप्रतिवपलाः सर्वभविना
महो कष्टं मस्पस्सपि विषयान् सेवितुमनाः ॥११॥ 330) सहात्र स्त्री किचित सुतपरिजनैः प्रेम कुचते
बशप्राप्तो भोगो भवति रतये किंचिदमधाः । श्रियः किंचितुष्टि विवधति परां सौल्यजनिकां
न किचित्तूंसा हो कतिपयविनरेतदलितम् ॥ १२॥ 331) विजित्योपी सर्वा सततमिह संसेग्य विषयान्
धियं प्राप्याना तनयमवलोक्यापि परमम् ।
निहत्यारातीनो बसमयमत्यन्तपरमं विमुक्ताव्यो हो" मुषित्ववर्य माति मरणम् ॥ १३ ॥
यत्री जरा भ्रमति, ततः गुषः तन्मुखे निःस्पृहः भवति ॥ १ ॥ सर्वभक्निाम् इमाः रूपस्थानस्वजनतनयद्रव्यवनिवासुता. लक्ष्मीकीर्तिद्युतिरतिमतिप्रीतितमः मदान्धस्त्रीनेत्रप्रकृतिरपलाः । तदपि मत्यः विषयान् सेवितुमनाः । अहो कष्टम् ॥११॥ अत्र स्त्री सुतपरिजनैः सह किंचित प्रेम कुरुते । वक्षप्राप्त: भोमः किंचित रतये भवति । अनषाः प्रियः परी सोस्पजनिका कांचितुष्टि विवर्षात । हो । साम् एतत् मखिलं कतिपयदिनः किंचित् न ।। १२ । इह सततं सर्वाम् उर्वी विजित्य विषया संसेव्य अना श्रियं प्राप्य परमं तनयम् भवलोक्यापि बरातीनाम् भत्यन्सपरमं बलवालयं निहत्य ही मुषितवत् विमुक्त
॥ १३॥ श्रियः अपायाघाखा: इदं जीवितं तृणवलपरम् । स्त्रीणां मनः पित्रम् । कामनसुखं भुजग
को कोन छोड़ता? किन्तु इस पृथ्वी पर विलास, मद और सौन्दर्यको लूटनेवाली इरा घूमा करती है । इसलिये सानी विवेकी उनके सुखसे निस्पृह हो जाता है वह उन्हें त्यागकर आत्मकल्याणमें लगता है ॥ १०॥ सभी प्राणियोंके रूप, स्थान, स्वजन, पुत्र, धन, परली, पुत्री, यश, कान्ति, रति, मति, प्रीति, धैर्य ये सब मदमत्त स्त्रीके नेत्रोंके समान स्वभावसे ही चल है, स्थायी नहीं हैं। फिर भी बड़ा खेद है कि मनुष्यका मन विषयोंके सेवनमें हो लगा रहता है ।। ११॥ इस संसारमें स्त्री पुत्रादि कुटुम्बियोंके साथ जो थोड़ा-सा प्रेम करती है, और जो अपने वशमें प्राप्त हुए मोग इस स्त्रीके साथ थोड़ा-सा राग पैदा करते हैं, तथा लक्ष्मीसम्पदा उत्कृष्ट सुख देनेवाली थोड़ी सी तुष्टि करती है। यह सब कुछ भी नहीं है क्योंकि ये सब कुछ दिनोंका ही खेल है । कुछ समय पश्चात् सब नष्ट होनेवाला है ।। १२ । यह मनुष्य इस संसार में समस्त पृथ्वीको जीत, निरन्तर विषयोंका सेवन कर, बहुमूल्य लक्ष्मीको प्राप्त कर तथा उत्तम पुत्रको भी देखकर और अत्यन्त महान् शत्रुओंके समूहका विनाश करके भी सब कुछ छोड़ लुटे हुए यात्रीकी तरह मरणको प्राप्त होता है अर्थात् संसारके सब सुखोंको प्राप्त करके भी अन्समें सब कुछ छोड़कर एकाको चला जाता है ॥ १३ ॥ संसारको सब विभूतियां नाशशील हैं । यह
१ स "स्थाना' । २ ० स्नान । ३ स वनिता सुता । ४ स Om. रति । ५ स तुष्टं, किंघनुष्टं । ६ स हि । ७ स भुरि for सर्वा । ८स विषयां । ९ स परमा। १० स निहम्त्या । ११ स हि ।