Book Title: Subhashit Ratna Sandoha
Author(s): Amitgati Acharya, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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[235:९-२६
सुभाषितसंवोहः 232) सद्दर्शनशानफलं चरित्रं ते तेन हीने भवतो यथव ।
'सूर्यादिसंगेन विवेव नेत्रे नेतत्फलं येन वदन्ति सन्तः ।। २३ ॥ 233) कवायमुक्तं कथितं चरित्रं कषापमाषुपधातमेति।
पवा कषायः सममेति पुंसस्तवा परित्रं पुनरेति पूतम् ॥ २४ ॥ 234) कबायसंगो सहते न वृत्तं सभाईच नं दिन व रेणम्।
कषायसंगो विधुनन्ति तेन चारित्रवम्तो मनयः सदापि ॥ २५ ॥ 235) नि:शेषकल्याणविषो समय यस्यास्ति वृत्तं शशिकान्तिकान्तम् ।
मरयस्य तस्य द्वितये ऽपि लोके न विद्यते काचन जातु भीतिः ॥ २६ ॥
तेषां यथाक्ष्यातयरित्रम् उक्तम् । तन्मिश्रतापाम् इतरं चतुष्कम् ॥ २२ ॥ चरित्रं सद्दर्शनज्ञानफलम् । दिवा मूर्यादिसंगेन (होने) ने इव तेन हीने ते बुधव भवतः । पेन सन्तः एतत् फलं न वदन्ति ।। २३ ।। परिवं कषायमुक्त कषितम् । कराययो उपचाप्तम् एति । यदा पुंसः कषायः शमम् एति, तवा बरिसं पुनः पूतम् एति 11 २४ ।। वृतं कगायसंगो न सहते। सभाषक्षुः न दिन रेणु च (सहते) । तेन चारित्रवन्तः मनुयः सदापि कषायसंगौ विधुनम्ति ।। २५ ॥ निःशेषकस्याणविधी समये शक्षिकान्तिकाम्स यस्य वृत्तम् अस्ति, तस्य मर्यस्य हित्तये ऽपि लोके जातु कायम भीतिः न विद्यते ।। २६ ॥ संग्रतस्य
का सदवस्थारूप उपशम, तथा संज्वलन देशधातिका उदय होनेपर जो क्षायोपमिक चारित्र प्रगट होता है , उसके चार भेद है । (१) सामायिक (२) छेदोपस्थापना (३) परिहारविशुद्धि (४) सक्ष्मसांपराय । सामायिक-का अर्थ है आत्मा-आत्मस्वभावमें लीन रहना वह सामायिक चारित्र है। छेदोपस्थापना-स्वभावसे च्युत होनेपर छेद-प्रायश्चित्त लेकर फिरसे स्वभावमें स्थापना करना इसको छेदोपस्थापना चारित्र कहते हैं (गुण ६ से ९)। परिहारविशुद्धि-आत्मविशुद्धिके बलसे विहार करते समय भूमीसे अधर चलनेकी ऋद्धि प्राप्त होना यह परिविशति चारित्र है। सूक्ष्मसांपराय-सूक्ष्म लोभ कषाय रहनेपर जो चारित्र प्रगट होता है उसे सूक्ष्मसांपराय चारित्र कहते हैं । यथाख्यातचारित्र-जैसा आरमाका स्वरूप है ध्रुव स्वभाव है उस स्वरूप परिणत होना इसको यथाख्यात चारित्र कहते हैं ॥ २२॥ सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानका फल सम्यक् चारित्र है। सम्यक्चारित्रसे रहित सम्यग्दर्शन-शान वृथा निरर्थक है। जिसप्रकार नेत्र होकर भो दिनको सूर्यादिक का प्रकाश न हो तो नेत्रका फल (कार्य) देखना संभव नहीं है। उसीप्रकार विना चारित्रके केवल सम्यग्दर्शन-ज्ञानसे अभीष्ट सिद्धि नहीं होती। ऐसा संतपुरुष कहते है ॥ २३ ॥ कषायके अभाव होनेपर ही चारित्र होता है। ऐसा कहा है। कषायको वृद्धि होनेपर चारित्रका विनाश होता है। जब कषाय शमनको प्राप्त होता है सब ही चारित्र पवित्र निर्दोष होता है ॥ २४॥ चारिश कषाय और संग (परिसह मूर्खापरिणाम), इनके सद्भाव को सहन नहीं करता । जिसप्रकार नेत्ररोगसे पीड़ित आंख दिनका प्रकाश तथा धूलिकणको सहन नहीं करतीं। इसलिये जो चारिशधारी मुनि कषाय और परिग्रहका सदाके लिये स्याग करते हैं वे ही सच्चे शानी मुनि कहलाते हैं। ॥ २५ ॥ पूर्ण चंद्रमाकी कांतिसमान जिनका चारिश निर्दोष और पूर्ण है उनका ही चारिश परिपूर्ण आत्म. कल्याण करने में समर्थ होता है । उस वोरपुरुषको इस लोकमें तथा परलोकमें कदापि रचमाश भी भोति नहीं होती । विशेषार्थ-जो कषाय और परिग्रहसे सहित है उनको हो सदेव भीति रहती है। वेहो (अप+ राधी)
१स सादि', सादि", सादिसमेन दिश्ये वि, सात" दिये वि । २ स "वृक्षाचयद्या, "वपाद्या । ३ स पूंस। ४स संगो, संगेः । ५ स सह तेन । ६ स शेगो, संगो, संगं । ७ स विधुनोति । ८ स मसंस्म, मूतस्य । ९ स द्वितयो।