Book Title: Subhashit Ratna Sandoha
Author(s): Amitgati Acharya, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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231 : ९-२२]
९. धारित्रनिरूपणत्रयस्त्रिंशत् 227) दूरे विशाले 'जनजन्तुमुक्ते गूढे ऽविरुद्धे त्यजतो मलानि ।
पूतां प्रतिष्ठापननामधेयां वदन्ति साघोः समिति जिनेन्द्राः ॥१८॥ 228) समस्तजन्तुप्रतिपालनार्थाः कर्मानव द्वारनिरोषवक्षाः ।
हमा मुनीनां निगन्ति पश्न पञ्जत्वमुक्ताः समितोजिनेन्द्राः ॥ १९ ॥ 229) प्रवृत्तयः स्वान्तवचस्तनूनां सूत्रानुसारेण निवृत्तयो वा।
यास्ता जिनेशाः कथयन्ति तिम्रो गुप्तौविष्ताक्षिलकर्मयन्याः ॥२०॥ 230) एवं चरित्रस्य चरित्रयुक्तस्त्रयोदशाङ्गस्य निवेवित्तस्य ।
व्रताविभेवेन भवन्ति भेवाः सामापिकाचाः पुमरेव पञ्च ॥ २१ ॥ 231) पञ्चाधिका विशतिरस्तदोषेरक्ताः कषायाः अपतः शमाद्वा।
तेषां यथाख्यातचरित्रमुक्तं तन्मियतायामितरं चतुष्कम् ।। २२।। समिति पदन्ति ।। १७ ।। जिनेन्द्राः दूरे विशाले जनजन्तु मुक्त गूढे अविरुदे (स्थाने) मलानि त्यजतः सापोः पूतां प्रतिष्ठापननामधेयां समिति वदन्ति ।। १८ ॥ जिनेन्द्राः मुनीनां समस्वजन्तुप्रतिपालनार्थाः, कर्मानद्वारनिरोघदक्षाः, पञ्चत्वमुस्ताः इमाः पञ्च समिती: निगन्ति ॥ २० ॥ स्वान्तवचस्तमूनां मूत्रानुसारेण या प्रवृत्तयः निवृत्तयः वा, ता. जिनेशाः विधूताखिलकमबन्धा. तित्रः गुप्तीः कषयन्ति ।।२०।। परिचयुक्तै: एवं निवेदितस्य त्रयोदशाङ्गस्य चरित्रस्य व्रतादिभेदेन सामायिकाद्याः पुनः पञ्च एव भेदाः भवन्ति ॥ २१॥ अस्तदोषः पञ्चाषिका विशतिः कषाया, सयतः शमाढा उक्टाः आदि पदार्थोका सावधानीसे धरना-उठाना यह मुनियोंकी मादान निःपण नामको चौथी पवित्र समिति संतपुरुषोंने कही है ॥ १७ ॥ ग्रामसे दूरवर्ती, विशाल, जोवजंतु विरहित, एकांत स्थान पर मलमूत्र विसर्जन करना मुनियोंकी प्रतिष्ठापन समिति जिनेंद्र देवने कही है ॥ १८॥ जन्म मरणसे मुक्त जिनेन्द्रदेवने समस्त जीव जंतुको सुरक्षा हो इस हेतुसे, तथा शुभ-अशुभ कर्मानवको रोकनेके लिये यह मुनियोंके लिये पाँच प्रकारको समिति कही है ॥ १९॥ सर्वज्ञ प्रतिपादित शास्त्रके अनुसार मन-वचन-कायकी आत्म स्वरूपके सरफ प्रवृत्ति अथवा शुभ-अशुभ कार्यसे निवृत्ति यह मुनियोंकी तीन प्रकारकी गुप्ति हैं ऐसा समस्त कर्मबंधका नाका करनेवाले जिनेंद्रदेवने कहा है ।। २०॥ पाँच वत, पांच समिति, तीन गुप्ति इसतरह तेरह मेद सहित चारित्र चारित्रधारी मुनियोंने कहा है । तथा व्रतादि मेदोंसे इस चारित्रके (१) सामयिक (२) छेदोपस्थापना (३) परिहार विशुद्धि (४) सूक्ष्मसांपराय (५) यथाख्यात ऐसे पांच भेद होते हैं:।। २१ ॥ इन सामायिकादि पांच मेदोंमें जो यथाख्यात नामक चारित्र है वह क्रोध-मान-माया-लोभ आदि पच्चीस कषाय दोषोंका क्षय अथवा उपशम होनेपर होता है और शेष चार चारित्र उन कषायोंका क्षयोपशम होनेपर होते हैं। विशेषार्म-चारित्र मोहनीय कर्मकी पचीस प्रकृति-अनंतानुबंधीक्रोध मान माया लोभ, अप्रत्याख्यानावरण क्रोध मान माया लोभ, प्रत्याख्यानावरण क्रोष मान माया लोभ, संञ्चलनक्रोध मान माया लोभ, ये सोलह प्रकृति और नव नोकषाय-हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुवेद, नपुसकवेद इन पच्चीस प्रकृतियोंका उपशमश्रेणी चढ़नेवाला जीव सर्वथा उपशम करता है उस समय उसको औपमिक यथाख्यात चारित्र होसा है { गुण ११)। इन्हीं पच्चीस प्रकृतियोंका क्षपकणी चढ़नेवाला जीव क्षय करता है उसको क्षायिक यथाख्यात चारित्र प्रकट होता है (गुण १२ से १४)। तथा अनंतनुबंधो, अप्रत्याख्यानावरण-प्रत्याख्यानावरण इन कुल सर्वघात्तिप्रकृतियोंका उदयाभावीक्षय और कुछ प्रकृतियों
१स जीवजन्तु। २ स विरुदे। ३ सप्टापण । ४ स श्रव° ! ५ स निवृत्तयो गा। ६ स हक्त । ७स तामिश्रि, बन्मि।