Book Title: Subhashit Ratna Sandoha
Author(s): Amitgati Acharya, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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157 : १०-१५ ]
१०. जातिनिरूपणषड्विंशतिः 255) अनेकभवसंचिता इह हि कर्मणा निमिता:'
प्रियाप्रिय वियोगसंगमविपत्तिसंपत्तयः । भवन्ति सकलास्विमा गतिषु सर्वदा देहिना
जरामरणवीचिके जननसागरे मज्जताम् ॥ १३ ॥ 256) करोम्यहमिदं तदार तमिवं करिष्याम्यवः
पुमानिति सवा क्रियाकरणकारणव्यावृतः । विवेकरहिताशयो' विगतसर्वधर्मक्षमो"
न बेसि गतमप्यहो जगति कालमत्याकुलः ॥१४॥ 257) इमे मम घनाजस्वजनवल्लभावहजा'---
मुद्दज्जनकमासुलप्रभूतयो भृशं वल्लभाः। मुषेति हतचेतनो भववने चिरं खिखते यतो भवति कस्य को जगति वालुकामुष्टियत् ॥ १५ ॥
विरतिं करोति । मुनिः तपस्यति । सुखी हसति । विक्लक क्लिश्यति ।। १२ ॥ हि इह सर्वदा जरामरणवीचिके जननसागर मज्जतां देहिनां सकलासु गतिषु इमाः अनेकभवसंचिताः कर्मणा निर्मिताः प्रियाप्रियवियोगसंगमविपत्तयः भवन्ति ॥ १३ ॥ महम् इदं करोमि, इदं तदा कृतम्, अदः करिष्यामि, इति सदा कियाकरणकारणव्यावृतः, अत्याकुलः, विवेकरहिताशयः, विगतसर्वधर्मक्षमः पुमान् जगति गतमपि कालं न वेसि अहो ॥ १४ ॥ इमे मम धनाङ्गजस्वजनवल्लभादेहबासुहजनकमासुलप्रभुतयः भृशं वल्लभाः इति हतचेतनः मुषा भवचने चिरं सिंद्यते। यतः जगति वालुकामुष्टिवत् कस्य कः भवति ।। १५ ।। निखिला जनाः कृतगरस्परोत्पत्तयः तनूअजननीपितृस्वससुताकलवादयो भवन्ति । किंबहुना, अत्र जगति आत्मनः
प्रकारको चेष्टाएं करता रहता है ॥ १२॥ यह संसार समुद्र के समान अपरिमित है। इसमें यह जीव जन्ममरणरूपी लहरोंसे पीड़ित होकर मनुष्य आदि गतियोंमें अनेक भवोंमें संचित पूर्वोपार्जित कर्मोदयवश कभी इष्टवियोग, कभी अनिष्ट संयोग, कभी दारिद्रय, कभी विपत्ति, कभी संपत्ति-वैभव इस प्रकार नाना अवस्थाएं भोगता है ॥ १३ ॥ मैं अब यह करता हूँ, मैंने पूर्व में ऐसा किया, आगे मैं यह करूगा इसप्रकार सदैव क्रियाध्यापारके कारणोंमें ही व्याप्त होता है, विशेष प्रकारसे चित्त लगाता है। हित-अहितके विवेकसे रहित होता है। सर्व धर्म-कर्म क्षमा-दया दान की ओर ध्यान नहीं देता। क्षण-क्षणमें जीवनकाल कम हो रहा है, दिन पर दिन बीत रहे हैं इसका इस जीवको भान नहीं रहता ॥ १४ ॥ यह जीव रात-दिन यह मेरा धन, यह मेरा पुत्र, यह मेरा बंधु, यह मेरी स्त्री, यह मेरी पुत्री, यह मेरा मित्र, यह मेरा पिता, यह मेरी माता, यह मेरा मामा आदि हैं, ये मेरे बड़े प्यारे हैं । ये मुझपर बड़ा प्यार करते हैं । इन्हें छोड़कर मैं जीवित नहीं रह सकता । इसप्रकार मोहके वश होकर इन सब मिथ्या बातोंको सच्चा समझता है। उनके संयोग-वियोगसे बिना कारण दुखी होता है । वास्तवमें इस संसारबनमें कौन किसका होता है। कोई भी किसीका होता नहीं। जिसप्रकार हाथको मूठ्ठीमें बालुके कण रखो तो वे मुट्ठीमें रहते नहीं । एक-एक कण मूठीमें से गिरता रहता है। उसी प्रकार ये सब माता-पिता आदि परिवार समय पाकर विछुर जाते हैं। अपने-अपने कर्मोदय वश भिन्न-भिन्न गतिको जाते हैं ॥ १५ ॥ जो इस भवमें पुत्र है वह अन्य भवमें पिता होता है। जो इस भव में माता है वह
१स कर्मणां निर्मताः । २ स संपतो। ३ स तथा। ४ स रहितावियो। ५ स क्षमा । ६ सहजा सु०।७४ ___ मुद्येति । ८ स विद्यरो, विद्यते, विद्यन्ते । ९ स वालिका", वालिकामुष्ट°, वाहुकाशुष्टि" ।