Book Title: Subhashit Ratna Sandoha
Author(s): Amitgati Acharya, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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सुभाषितसंवोहः
[277 : ११.९ 275) तिमिरपिहित नेत्रे लालाव'लोमलिनं मुखं
विगलितगती पादौ बेहो 'विसंस्थुलतां गतः । पलिसकलितो मूर्धा कम्पत्यबोधि' जरागाना
*मिति कतपदा तृष्णानारी' तयापि न मुञ्चति ॥७॥ 276) गलति सकलं रूपं लालां विमुञ्चति जल्पने ___ स्खलति गमनं बन्ता नाशं भयन्ति शरीरिणः । विरमति मतिर्नो शुश्रूषां करोति च गहिनी
वपुषि अरसा ग्रस्ते वाक्य तनोति म हजः ॥ ८॥ 277) रचयति मति धर्मे नीति तनोत्यतिनिर्मला
विषयविरति पत्ते चेतः शर्म नपते परम्'। व्यसननिहति २ बाते सूते विनीतिमयाञ्चिा
मनसि निहिता" प्रायः पुंसां करोति जरा हितम् ॥९॥ यथा स्वा अस्थीनि (तया) पयोजिसतः कररसनया तरसा रसति । जीवानाम् ईदृशं विचेष्टितं धिक् ॥ ६ ॥ नेत्र तिमिरपिहिते, मुखं लालावलीमलिनं, पादौ विगलितगतो, देहः विसंस्थुलतां गतः, पलितकलितः मूर्धा कम्पति । इति कृतपदा जरा गनाम् अबोधि । तथापि तृष्णानारी न मुञ्चति ॥ ७ ।। वपुषि जरसा प्रस्ते परीरिणः सकलं रूपं गलति । अल्पने लाला विमुञ्चति । गमनं स्वलति । बस्ताः नाशं श्रयन्ति । मतिः विरति । गहिनी शुश्रूषा न करोति । देहजः व वाक्य न तनोति ॥ ८ ॥ मनसि निहिता जरा प्रायः पुंसां हितं करोति। धर्मे मति रचयति । अतिनिर्मला नीति तनोति । चन: एकदम क्षीण हो जाती है तथापि उसको इंद्रिय विषयोंको छोड़नेको इच्छा न होकर, प्रत्युत भोगनेकी ही इच्छा बनी रहती है। जिस प्रकार कुत्ता रक-मांस रहित हड्डोको तृष्णाके वश चबाया ही करता है । उसी प्रकार निलंज्ज होकर यह जोव वृद्धावस्थामें भी उन इंद्रिय विषयोंको सेवन करनेकी ही इच्छा करता है । इस प्रकार संसारी जीवकी इस चेष्टाको धिक्कार है ॥ ६॥ संसारका ऐसा कायदा है कि स्त्री एक पुरुषको तब सक ही अनुराग (प्रेम) करती है जब तक वह पुरुष उसी स्त्रीको चाहता है। ज्योंही उस पुरुषने अन्य स्त्रीको चाहा, त्योंही वह उस पर गुस्सा करने लगती है। उसे छोड़नेके लिये उतावली हो जाती है। परंतु तृष्णारूपी यह स्त्री ऐसी निर्लज्ज है-स्त्रियोंके कायदेके विरुद्ध काम करने वालो है-कि पुरुषको, अपने पतिको जरा रूपी अन्य स्त्री पर आसक्त होते हुये देखकर भी उसे छोड़ना नहीं चाहती। यद्यपि उस पुरुषके नेत्र मंद ज्योतिसे अंघुक हो गये हैं, लार गलनेसे मुख मलीन है, पैर चलनेमें लहखड़ाते हैं, शरीर शिथिल झुर्रातार हो गया है, शिरका माथा केसके गलनेसे पलित हो गया है, शिर हिलता है, कांपता है, इसलिये जरारूपो अन्य स्त्रीने इसे अपना लिया है, स्वाधीन कर लिया है, ऐसा जानकर भो यह तृष्णारूपो नारी इसे छोड़ना नहीं चाहती । अर्थात् इस पुरुषको विषय भोगोंको इच्छा बनी ही रहती है। यह बड़ा आश्चर्य है ॥ ७॥ जब यह पुरुष जरासे ग्रस्त हो जाता है तब इसका संपूर्ण रूप-सौंदर्य नष्ट होता है। बोलते समय लार बहसा है। चलनेमें गति स्वलित हो जाती है। दांत गिर जाते हैं। बुद्धि कुंठित हो जाती है । स्त्रो सेवा शुश्रूषा करनेको इच्छा नहीं करती। अपना
१ स वलिम"। २ स विसंस्थ', विसंस्क', विशंस्थु । ३ स 'बोजरांगना। ४ स इव कृतपदां, जरांगनानिमि कृमपदा । ५ सतृष्णा नारी । ६ स वा for च। ७ स काव्यं । ८ स तनोसिभिनि । ९ स समं । १० सनयति। ११ स परां । १२ स निहितं । १३ स याचिता, यांचितं, योचिता, धार्चिता, पच्युतां । १४ स हिता, निहता।