Book Title: Subhashit Ratna Sandoha
Author(s): Amitgati Acharya, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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240: 3-? 1
९. चारित्र निरूपणत्रयस्त्रशत्
236) न चक्रनाथस्य न नाकिराजो न भोगभूपस्य न नागराजः । आत्मस्थितं शाश्वतमस्तदोषं यत्संयतस्यास्ति सुखं विबाधम् ॥ २७ ॥ 237) निवृत्तलोकव्यवहार वृत्तिः संतोषवानस्तसमस्तदोषः ।
यत्सौख्यमाप्नोति मसान्तराय किं तस्य लेशो ऽपि सरागचित्ते ॥ २८ ॥ 230 ) ससंशयं नश्वरमन्सतुः खं सरागचित्तस्य जनस्य सौख्यम् ।
तदन्यथा रागविवजितस्य तेनेह संतो न भजन्ति रामम् ॥ २२ ॥ 239) बिनिमलं पार्वणचन्द्रकान्तं यस्यास्ति चारित्रमसी गुणज्ञः ।
मानी कुलीनो जगतोऽभिगम्यः कृताचंजन्मा महनीयबुद्धिः ॥ ३० ॥ 240) गर्भे विलीनं वरमत्र मातुः " प्रसूतिकाले ऽपि वरं विनाशः ।
असंभवो वा वरमङ्गभाजो न जीवितं चास्वरित्रमुक्तम् ॥ ३१ ॥
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आत्मस्थितं अस्तदोषं शाश्वतं विश्वाधं यत् सुखम् अस्ति (तत्) न चक्रमाचस्य न नाकिराजः, न मोगनूपस्य, न नागराजः ( अस्ति ) ॥ २७ ॥ निवृत्त लोकव्यवहारवृत्तिः, संतोषवान्, अस्तसमस्तदोषः यद् मतान्तरायं सौस्थम् आप्नोति तस्य लेशः मपि सरागचित्ते (अस्ति ) किम् ? ॥ २८ ॥ सरागचित्तस्य जनस्य सोख्यं ससंशयं नववरम् अन्तदुःखं (च) रागनिर्वाजितस्प तरम्यथा । तेन इह सन्तः रागं न भजन्ति ॥ २९ ॥ यस्य पार्वणचन्द्रकान्तं विनिर्मलं चारित्रम् बस्ति, असौ गुणशः, मानी, कुलीनः, जगतः अभिगम्यः कृतार्थजन्मा, महनीयबुद्धिः ॥ ३० ॥ मत्र मातुः गर्भे विलीनं वरम् । प्रसूतिकाले विनाश: ग्रपि
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आत्माकी अराधनासे दूर होनेसे अपराधी है । अपराधी चोर हो भयभीत होता है। रात्रिमें कोई न देखे, न सुने इस डर से धीमे-धीमे पांव रखकर चलता है। परंतु जो निरपराधी है, चारित्रधारी है, आत्माकी अराधना में सदैव तत्पर है वह सदा निर्भय है ।। २६ ।। चारित्रधारी संयत्तमुनिको जो निर्वाघात्मास्थित, ध्रुवस्वभावरूप, समस्तदोष रहित शाश्वत सुख होता है वह सुख चक्रवर्तीको भी नहीं है। स्वर्गस्थ देवेंद्र को भी नहीं है । भोगभूमिमें रहनेवालोंको भी नहीं है। नागराज धरणेंद्र को भी नहीं है। इनका सब बाह्य अनात्म जडवेभव आत्मवैभवके सामने तुच्छ है ।। २७ ।। जिसने सांसारिक समस्त लोकव्यवहारोसे अपनी वृत्ति अपना उपयोग हटाया है, जो परमसंतोषवान् है, समस्त दोष भय जिनके नष्ट हो गये हैं उसको सब अंतराय - विघ्नबाधाओंसे रहित निरंतराय अखंड जो साधन सुख मिलता है, उसका लेशमात्र भी सरागीको प्राप्त नहीं होता ॥ २८ ॥ जो सरागत्रित है; सरागचरित्र धारण करने वाले हैं, उनको चारित्रके बलसे जो कुछ स्वर्गादि ऐहिकसुख मिलता है
संशयसहित होता है । उस सुखसे च्युत होनेकी शंका-भीति देवलोकमें सदैव रहती है। वह नश्वर है। शाश्वत नहीं है । अंत में महान दुःख उत्पन्न करने वाला है। परंतु जिनका चिरा रागरहित है, वीतरागचारित्र को जो धारण करते हैं । उनको जो सुख मिलता है यह उक्त ऐहिक सुखसे विलक्षण है। उस सुखसे च्युत होनेका भय नहीं होता है । वह अविनश्वर शाश्वत होता है। उसका अंत नहीं, निरंतर ऐसा अनंत सुख वीतरागचारित्र धारी मुनिको प्राप्त होता है। इसलिये संत पुरुष रागको कपायको कभी नहीं चाहते । रागको आगके समान भयंकर समझते हैं। उससे सदैव दूर ही रहते हैं ।। २९ ।। जिसका चारित्र पूर्णमासी चंद्रमा के समान निर्मलनिर्दोष पूर्ण है, वहीं श्रेष्ठ है । गुणज्ञ है। वही सच्चा सम्यग्दृष्टि ज्ञानी है । वही सम्मान करने योग्य है। कुलीन है । उसीने अपना जन्म अपना कुल सार्थक किया। वहीं जगत में श्रेष्ठ है ॥ ३० ॥ जिसका जीवन चारित्र से हीन रहित है, उसका इस लोक में जन्म लेकर माताके गर्भमें ही विलीन होना अच्छा है । अथवा जन्म ४ स माणी । ५ स प्रसोति ।
१ स लेश्यो स वित्तः ३ सागपाश