Book Title: Subhashit Ratna Sandoha
Author(s): Amitgati Acharya, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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सुभाषितसंदोहः
[39:२-१८39) तीर्थाभिषेकजपहोमदयोपवासा ध्यानवताध्ययनसंयमदानपूजाः।
नेफ्फलं जगति देहयतां वदन्ते याग्दमो निखिलकालहितो ददाति ॥ १८ ॥ 40) 5भाभरमुखो विकरालरूपो रक्तक्षणो दशनपीडितदन्तवासाः।
त्रासं गतो ऽति मनुजो जननिन्धवेषः क्रोधेन कम्पिततनुभुषि राक्षसों था ॥ १९ ॥ 41) को ऽपीह लोहमतितप्तमुपाददानो देवयते निजकरे' परदाहमिच्छुः।
यात्तथा प्रकुपितः परमाजिघांसुवुःखं स्वयं बजति वैरिष विकरूपः ॥२०॥
पितमातसहज्जनानाम् अपि अप्रियत्वम् उपकारिजनापकारं देहलयं च प्रकृतकार्यविनाशनं करोति इति मत्वा भव्या कोपवशिनो न भवन्ति ।। १७ । जगति निखिलकालहितः दमः देहवतां पादुक्फले ददाति तीर्थाभिषेकजपहोमदयोपवासाः ध्यानवताध्ययनसंयमदानपूजाः ईदृक् फलं न ददन्ते ॥ १८॥ क्रोधेन भ्रूभङ्गमरमुख: विकरालरूप: रफ्तेक्षणः दशनपीडितदन्तवासरः जननिन्द्यवेषः अतिवास गतः कम्मिततनुः मनुजः भुवि राक्षसो या (प्रतिभाति) ॥१९॥ परदाहमिच्छु: अतितप्त लोहं निजकरे उपावदानः को ऽपि इह पढत् दंदह्यते तथा प्रकुपितः परम् आजिघांसुः स्वयं दुःखं व्रजति बैरिवधे
अनिष्ट करता है। क्रोधके वशीभूत होकर मनुष्य अपने उपकारी जनोंका भी अपकार करता है। यहाँ तक कि क्रोधी मनुष्य अपने शरीरको भी नष्ट करता है। और प्रकृत कार्यको भी नष्ट करता है । ऐसा विचार करके विवेकी भव्य जीव उस क्रोधके वशीभूत नहीं होते हैं ॥ १७ ॥ संसारमें गंगा आदि तीयोंमें बान, जप, हवन, दया, उपवास, ध्यान, व्रत, अध्ययन, संयम, दान और पूजा; ये सब प्राणियोंके लिये ऐसे फलको नहीं दे सकते हैं जैसे कि फलको सब ( तीनों) कालोंमें हित करनेवाला क्रोधका दमन (क्षमा) देता है। | अभिप्राय यह कि यदि क्रोधको वशमें नहीं किया गश है तो फिर उसके साथ किये जाने वाले तीर्थस्नान आदि सब व्यर्थ होते हैं ] 1॥ १८ ॥ क्रोधके वशमें होनेपर मनुष्यका मुख भ्रुकुटियोंकी कुटिलतासे विकृत हो जाता है, आकृति मयानक हो जाती है, नेत्र लाल हो जाते हैं, यह दांतोंसे अपने अधरोष्ठको चबाने लगता है, उसका वेष जनोंसे निन्दनीय होता है, तथा उसका सारा ही शरीर कांपने लगता है। बत प्रकार अतिशय पीडाको प्राप्त हुआ ह क्रोधी मनुष्य साक्षात् राक्षस जैसा प्रतीत होता है ॥१९॥ यहां कोई दसरेको जलानेकी इच्छासे यदि अपने हाथ में अत्यन्त सपे हुए लोहेको लेता है तो दूसरा जले अथवा न भी जले, किन्तु जिस प्रकार वह स्वयं जलता है उसी प्रकार शत्रुको मार डालनेका विचार करके क्रोधको प्राप्त हुआ मनुष्य दूसरेका घात करनेकी इच्छासे स्वयं दुखको अश्श्य प्राप्त होता है। उससे शत्रुका घात हो अथवा न भी हो, यह अनिश्चित ही रहता है। विशेषार्थ-जिस प्रकार कोई मनुष्य क्रोधके वश होकर दूसरेको जलानेकी इच्छासे यदि हाथमें अंगारको लेता है और उसके ऊपर फेंकता है तो सर्वप्रथम वह स्वयं ही जलता है, तत्पश्रात् यदि वह दूसरेको लग गया तो वह जल सकता है, अन्यथा वह बच भी जाता है। ठीक इसी प्रकार जो क्रोधके वश होकर दूसरे को नष्ट करनेका प्रयत्न करता है वह उस प्रकारके रौद्र परिणामोंसे पापका संचय करके दुर्गतिको प्राप्त होता हुआ प्रथम तो स्वयं दुख को प्राप्त होता है, तत्पश्चात् यदि उस समय दूसरेके से पापका उदय संभव हुआ तो वह नष्ट हो सकता है, अन्यथा उसका बह प्रयत्न निष्फल हो जाता है और वह सुरक्षित ही रहता है। इस प्रकार क्रोध जितना स्वयंका अहित करता है उतना वह दुमरेका नहीं कर सकता है ॥ २० ॥
म लोहाम', लोहमिति ।
* स पूजा। २ स यादृरक्षमो। ३ गतीषि, गतोसि । ४ स राश्यसो । ६ स 'करो। ७ स 'दोहा । ८ स वैरिविधेर्विकल्प।