Book Title: Subhashit Ratna Sandoha
Author(s): Amitgati Acharya, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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सुभाषितसंदोहः
[52 : ३-३ 52) हीनानवेक्ष्य कुरुते ददये ऽभिमानं मूर्खः स्वतोऽधिकगुणानवलोक्य मान् ।
प्राशः परित्यजति गर्वमतीय लोके सिद्धान्तशुद्धधिषणा मुनयो बदन्ति ॥ १० ॥ 53) जिल्हासहसकलितोऽपि समासहसौर्यस्यां न दुःखमुपवर्णयितुं समर्थः।।
सखदेवमपहाय परो मनुष्यस्ता वनभूमिमुपयाति नरो ऽतिमानी ॥११॥ 54) या छेदमेदवमनानदाहदोहरातातपासजलरोधषधाविदोषा'।
मायावशेन मनुजो जनमिन्दनीयां तिर्यग्मति नजति तामतिःखपूर्णाम् ।। १२ ॥ 55) यत्र प्रियाप्रियवियोगसमागमाम्पप्रेयत्वधाम्यधनबान्धवहीनताथैः ।
दुःख प्रयाति विविध मनसोप्यसर्थ तं मर्यषालमधितिष्ठति माययाजी ॥ १३ ॥ उपयाति इति गुणवोपविवारदसः चेतसि गर्वस्य दोष संनिधाय न अहंकरोति ।। ९॥ लोके मूर्खः स्वतः हीनान् मान् अवेक्ष्य हृदये अभिमान कुरुते । प्रातः स्वतः अधिकगुणान् मान् अवलोक्य अतीव गवं त्यजति इति सिद्धान्तशुद्धधिपणाः मुनयो वदन्ति ।। १० ।। सर्वदेवम् अपहाय जिलासहस्रकलितः अपि परः मनुष्यः समा (वर्ष) सहस्रः यस्यां दुःखम् उपवयितुं न समर्थः, अतिमानी नरः तां मभूमिम् उपयाति ॥ ११ ।। मायावशेन मनुजः जननिन्दनीयामतिदुःखपूर्णा तां तिर्यग्गति ब्रजति या भेदभेददमनाङ्गलबाहदोहवातातपान्नजलरोधवधादिदोषा (अस्ति) ॥ १२॥ अङ्गी मायया तं मयं. मनुष्य उद्धत रहता है वह नाशको प्राप्त होता है और जो नम्र रहता है वह समृद्धिको प्राप्त होता है। इस प्रकार अभिमानके दोषको चित्तमें धारण करके-उसकी बुराईका विचार करके-गुण और दोषका चतुराईसे विचार करनेवाला पुरुष उस अहंकारको नहीं करता है ॥९॥ लोकमें मूर्ख मनुष्य अपनेसे हीन जनोंको देखकर हृदयमें अभिमान करता है और बुद्धिमान् मनुष्य अपनेसे अधिक गुणत्राले मनुष्यों को देखकर उस गर्वको बहुत दूर करता है, ऐसा आगमके अभ्याससे निर्मलताको प्राप्त हुई बुद्धिके धारक मुनिजन . निरूपण करते हैं। विशेषार्प-अज्ञानी मनुष्य जब अपनेसे हीन मनुष्योंको देखता है तो उसके हृदय यह . अभिमान उत्पन्न होता है कि मैं कितना श्रेष्ठ हूँ, ये बेचारे मेरे सामने कुछ भी नहीं है। इस अभिमानका फल यह होता है कि यह जो भविष्यमें और भी अधिक उन्नति कर सकता था, वह नहीं कर पाता है। इसके अतिरिक्त उक्त अभिमानके निमित्तसे जो पापबन्ध होता है उसके कारण वह भविष्यमें दुखी भी होता है । परन्तु जो बुद्धिमान मनुष्य है वह जब अपनेसे अधिक गुणवाले मनुष्योंको देखता है तो उसे उनके गुणोंमें अनुराग होता है, इसीलिये वह उनके सामने नतमस्तक हो जाता है । फल इसका यह होता है कि वह स्वयं भी वैसा गुणवान बन जाता है तथा उस गुणानुरागसे प्राप्त पुण्यके उदयसे भविष्यमें सुखी भी होता है ॥१०॥ अतिशय अभिमानी मनुष्य जिस नरकभूमिको प्राप्त होता है उसमें प्राप्त होनेवाले दुखका वर्णन करनेके लिये सर्व देवको छोडकर दूसरा कोई मनुष्य, यदि हजार जीभोंसे भी सहित हो तो भी वह हजार वर्षों में भी समर्थ नहीं हो सकता है। [अभिप्राय यह है कि अभिमानके कारण प्राणी नरकमें जाता है और वहां वह वर्णनातीत असह्य दुखोंको चिरकाल तक सहता है । ॥११ ।। मायाचारके वशीभूत होकर मनुष्य लोगोंके द्वारा निन्दनीय एवं अतिशय दुखोंसे परिपूर्ण उस तिथंचगतिको प्राप्त होता है जो कि नाक आदिका छेदना, भेदना (खण्डित करना), दमन (दण्डित करना), किसी अनादिसे विहित करना (दागना), जलाना, दुहना, वायु, घाम, अन्न-जलका रोकना (भूखा-प्यासा रखना) और मारने आदिरूप अनेक दोषोंसे सहित हैं ॥ १२॥ प्राणी मायाचारसे उस मनुष्यक्षेत्र
स "नियः, नंद'
१स समा सहमें । २ समुपहाय । ३ स भिमानी । ४ स यां। ५ स 'दोषां, दोषः। .स प्रेषत्व', प्रेसव' मेक्षित्व',८स हीनसौधैः । ९ स मनसापिसह्यम् ।