Book Title: Subhashit Ratna Sandoha
Author(s): Amitgati Acharya, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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108 : ६-8६ ]
६. स्त्री [ गुण] दोषविचारपञ्चविंशत्तिः
108) संशुम्भत्पाण्डुगण्डा प्रचकितहरिणीलोचना कीरनासी सज्येवौसानतभ्रूः सुरभिकचचया त्यक्तपद्ये पद्मा । अर भजन्ती धृतमदनमदैः प्रेमतो वीक्ष्यमाणा नेरग्यस्यास्ति योषा स किमु वरतपो भक्तितो नो विधते ॥ ४ ॥ 107) संत्यक्तव्यक्तबोधस्तरुरपि बकुलो मद्यगण्डूषसिषतैः पिण्डीवृक्षश्च मुञ्श्चंश्चरणतलहतः पुष्परोमाञ्चमर्थ्यम् ॥ सौख्यं जानाति यस्याः कृतमदनपेतेयभावास्पदायास्तां नारीं वर्जयन्तो विदधति तरुतो ऽप्यूनमात्मानमशाः ॥ ५ ॥ 108) गौरी देहार्धमीशो हरिरपि कमलां नीतवानेत्र घो यत्संगात्सौख्यमिच्छुः सरसिजनिलयो ऽष्टार्धवक्त्रो बभूव । गीर्वाणानामत्रीशो दशशतभगता माप्तवानस्तधैर्यः
सा देवानामपीष्टा मनसि सुवदना वर्तते नुन कस्य ॥ ६ ॥
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सुरभिकचचया, त्यक्तपद्मा पद्मा इव धृतमदनमदैः अः अहं भजन्ती, प्रेमतः षीक्षमाणा, ईदृक् यस्म योषा नास्ति सः भक्तितः वरतपः नो विधत्ते किमु ॥ ३४ ॥ कृतमदनपतेः हावभावास्पदायाः यस्याः मद्यगण्डूषसिक्तः संत्यक्तम्यक्तबोषः बकुलः तपः च चरणतलहतः पिण्डीवृक्ष: ( अशोकः ) अयं ( पूजोपचारार्थ ) पुष्परोमा मुञ्चन् सौख्यं जानाति, तां नारी वर्जयन्तः अशाः आत्मानं तरुतः अपि अनं विदधति ॥ ५ ॥ अत्र मत्संगात् सौख्यम् इच्छुः ईशः गौरी देहार्ध, हरिः अपि कमलां वक्षः नीतवान् | सरसिजनिलयः अष्टाक्क्त्रः बभूव । गीर्वाणानाम् अधीशः अस्तभी वस्तु सुख देनेवाली नहीं है || २ || जिसके पात्रोंका पृष्ठ भाग कछुएकेसमान ऊंचा है, चरणोंका तल भाग लाल है, जंघाएं (पिंडरी ) गोल हैं, ऊरु (घुटनोंके ऊपरका भाग) सुन्दर हैं, कटि भाग और नितम्ब स्थूल हैं, जघन विस्तृत है, नाभि सरल करके समान हैं, मध्य भाग इन्द्रके अस्त्र ( बज्र ) के समान कुश है, स्तन सुवर्णकलशके समान हैं, कण्ठ शंखके घुमायके समान है, उभय भुजाएं पुष्पमाळाके समान हैं, मुख चन्द्रके समान आल्हादजनक है, अधरोष्ठ पके हुए कुंदुरु फलके समान लाल है, शोभायमान कपोल सफेद हैं, नेत्र भयभीत हरिणीके नेत्रोंके समान चंचल हैं, नाक तोतेकी चोंचके समान है, भौंहें सुसज्जित धनुके समान नम्रीभूत हैं, तथा बालों का समूह सुगन्धित है, ऐसी जो स्त्री मानो कमलको छोड़कर आयी हुई लक्ष्मी के समान प्रतीत होती है तथा जो प्रेमपूर्ण दृष्टि से देखकर कामोत्पादक अपने अंगों ( अवययों ) कामी शरीरका सेवन करती हुई उसे सुखित करती है, वह जिस मनुष्यके पास नहीं है वह भक्तिसे उत्तम तपको क्यों नहीं करता है ? अर्थात् उक्त लीकी प्राप्तिके लिये उसे उत्कृष्ट तप करना चाहिये ।। ३-४ ॥ हावभावोंको दिखाकर कामको उद्दीप्त करनेवाली जिस स्त्रीके मयके कुल्लेसे खींचा जाकर विशिष्ट बोधसे रहित बकुल वृक्ष तथा जिसके पादतलसे ताड़ित होकर पिण्डीवृक्ष ( अशोकवृक्ष ) भी योग्य पुष्परूप रोमांचको छोड़कर -- प्रफुल्लित होकर सुखका अनुभव करते हैं उस स्त्रीका जो परित्याग करते हैं वे अज्ञानी मनुष्य अपने को उन वृक्षोंसे भी हीन करते हैं ॥ ५ ॥ जिस स्त्री के संयोगसे सुखकी इच्छा करनेवाले महादेवने पार्वती को अपने शरीर के अर्थ भागको प्राप्त कराया, विष्णूने भी लक्ष्मीको वक्षस्थलपर धारण किया, ब्रह्माने चार मुख धारण किये, तथा अधीरतावश इन्द्रको सौ योनियां धारण करनी पड़ी; इस प्रकार देवों को भी वह सुन्दर मुखवाली किस मनुष्यके मन में नहीं रहती है ? अर्थात् मनसे उसे सब ही चाहते हैं ॥ ६ ॥ १ स कीरणाशा | २ संयासा, राच्छेच्छासा (Gloss: आरोपितधनुषवत् ) । ३स पद्मेन । ४ स वीक्ष। ५. स शिक्तः । ६ समये । ७ सयानाति, जातिना । ८ स यस्याकृत ९स पते १० स भावास्यदोषा", "भावस्यदाया", "भावस्यदीया ।