Book Title: Subhashit Ratna Sandoha
Author(s): Amitgati Acharya, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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सुभाषितसंदोहः
[169:७-४६169) अधस्तनश्वभ्रभुवो न याति' पन सर्वनारीषु न सअितोऽन्यतः।
न जायते व्यस्तरदेवमातिषु न भावनज्योतिषिकेषु सद्रुषिः ॥४२॥ 170) न बान्धवा नो सुहदो न घल्लभा न देहजा नो धनधान्यसंचयाः ।
तथा हिताः सन्ति शरीरिणां जने ययौन सम्यक्त्वमदूषितं हितम् ॥४॥ 171) तनोति धर्म विधुनोति पातक" ददाति सौम्य विधुनोति बाधकम् ।
___ चिनोति मुक्ति विनिहन्ति संसर्ति जनस्य सम्यक्त्वमनिन्वितं धृतम् ॥४॥ 172) मनोहरं सौक्यकर शरीरिणां तदस्ति .लोके सकले न किंचन ।।
यदा सम्यक्स्वधनस्य दुर्लभमिति प्रचिरपात्र भवन्तु तत्पराः ॥४६॥ 173) विहाय देवी गतिमर्षितां सतां ब्रजन्ति नाम्यत्र विशुखदर्शना ।
ततच्युताधधराविमानवा भवन्ति भव्या भवभीरयो" भुवि ॥४६॥ सद्रुचिः षड् अधस्तनश्वभ्रभुवः न याति । सर्वनारीषु न, संजितः अन्यत: न (याति) । व्यन्तरदेवनाति न जायते। भावनज्योतिषिकेषु न जायते ॥ ४२ ।। अब जने यथा अदूषितं सम्यक्त्वं शरीरिणां हितं तया न बान्धवाः,नो सुहृदः, न वक्षमाः, न देहजाः, नो धनधान्यसंचयाः हिताः सन्ति-।। ४३ ॥ धृतम् अनिन्दितं सम्यक्त्वं जनस्य धर्म तनोति, पातकं विधुनोति, सौख्यं ददाति, बाधकं विधुनोति, मुक्ति चिनोति, संसृति विनिहन्ति ।। ४४ ।। अत्र सकले लोके शरीरिणां मनोहरं सौम्यकर तत किंचन न अस्ति यत् सम्यक्पधनस्थ दुर्लभम् इति प्रचिन्त्य ग (मव्याः) तत्परा भवन्तु ॥ ४५ ॥ विशुददर्शना सताम् अचितां देवी गति विहाय अन्यत्र न वन्ति । ततः च्युताः भवभीरवः भव्या: भुवि चक्रधरादिमानवाः भवन्ति ॥४६॥ मिथ्यात्वरूप विषका उपभोग करते हुए स्वर्ग में भी रहना अच्छा नहीं है ॥ ११॥ सम्यग्दृष्टि जीव प्रथम पृथिवीको छोड़कर नीचेकी शेष छह पृषिवियोंमें, सब नियोंमें, संझीको छोड़कर अन्य असंही पर्यायमें तथा व्यन्तर, भवनवासी एवं ज्योतिषी देवजातियों में भी उत्पन्न नही होता है॥४२॥ कोकमें प्राणियोंका जैसा हितकारक निर्मल सम्यग्दर्शन है वैसे हितकारक न तो बान्धन (समान गोत्रवाले ) हैं, न मित्र हैं, न स्त्रियां हैं, न पुत्र हैं, और न धनसंचय है ॥ ४३ ॥ धारण किया गया निर्मल सम्यग्दर्शन मनुष्य के पापको नष्ट करके धर्मका विस्तार करता है, विबाधाओंको दूर करके सुखको देता है, तथा संसारको नष्ट करके मुक्तिको प्राप्त कराता है ।। ४४|| समस्तही लोको प्राणियों के लिये ऐसी कोई भी सुखकारक रमणीय वस्तु नहीं है जो कि यहाँ सम्यग्दर्शनरूप सम्पत्तिसे सहित जीवको दुर्लभ हो, ऐसा विचार करके भव्य जीव उस निर्मल सम्यग्दर्शनमें लीन होवें । [अभिप्राय यह कि प्राणीको जब इस निर्मल सम्यग्दर्शनसे ऐहिक और पारलौकिक सब प्रकारका ही सुख प्राप्त हो सकता है तब उसे उस निर्मल सम्यग्दर्शनको अवश्य धारण करना चाहिये] ॥ ४५ ॥ निर्मल सम्पादृष्टि जीव सज्जनोंद्वारा पूजित देवगतिको छोड़कर दूसरी किसी भी गतिमें नहीं जाते हैं। फिर वहासे युक्त होकर वे भव्य जीव संसारसे भयभीत होते हुए पृथिवीके ऊपर चक्रवर्ती आदि श्रेष्ठ मनुष्य उत्पन्न होते हैं। विशेषार्थ- इसका अभिप्राय यह है कि जिस भव्य जीवके सम्यग्दर्शन प्राप्त करनेके पूर्वमें किसी श्रीयुका बन्ध नहीं हुआ है उसके फिर एकमात्र देवायुका ही बन्ध होता है। परन्तु यदि सम्यग्दर्शन प्राप्त करनेके पूर्वमें उसके किसी आयुका बन्ध हो चुका है तो फिर वह उस आयुके अनुसार ही किसी गतिमें जावेगा । जैसे-यदि उसके सम्यग्दर्शनके प्राप्त होनेके पूर्वमें नारक आयुका बन्ध हो चुका है तो वह नियमतः नरकगसिमें ही जावेगा । परन्तु वह ऊपरके श्लोक ४२ के अनुसार प्रथम नरकमें ही जावेगा, आगे नहीं । इसी प्रकार यदि उसके पूर्वमें तिर्यगायुका बन्ध हो चुका है, तो फिर वह सिंयंच गतिमें ही जावेगा, परन्तु जावेगा वह भोगभूमिज तिर्यचों में न कि कर्मभूमिज तिर्यचोंमें ॥ ४६॥
, स जाति। २ स सशितो, मंशितो। ३ स नतः, न्यल। ४ स भावनघोति । ५ स ४२ ६ सचिताः। ७स जथात्र, यथा हि। ८ सजनेः lor हितम्। ९.स ४४|| १० स पापक। 21 स वृतां १२ स४५|| १३ सकिं घना । १४४६॥ १५स देवीं। १६ स विशुद्धिदर्शनो, दर्शनां! १७ स तीरवो। १८ ||