Book Title: Subhashit Ratna Sandoha
Author(s): Amitgati Acharya, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
View full book text
________________
४४
सुभाषितसंदोहः
150) भवानभोगेष्वपि भङ्गरात्मनो जयस्तु नारीजनचितसंततिम् । भवार्णवश्रान्तिविधानहेतुषु विरागभावं विदधाति समुचिः ॥ ३२ ॥ 160) कलत्रपुत्रादिनिमित्ततः कचिद्विनिन्द्यरूपे विहिते ऽपि कर्मणि ।
व कृतं कर्म विनिन्दितं सतां मयेति भव्यश्वषितो विनिन्दति ॥ ३३ ॥ 161) गलन्ति दोषाः कथिताः कथंचन प्रतप्तलोहे पतितं यथा पयैः ।
न येषु तेषां वतिनां स्वदूषणं निवेदयत्यात्महितोद्यतो जनेः ॥ ३४ ॥" 102) निमित्ततो भूतमनर्थकारणं य यस्य कोपादिचतुष्टयं स्थितिम् ।
करोति रेखा पयसीय मामले स शैतभावो ऽस्ति विशुद्धदेशनः ॥ ३५ ॥" 163) विशुद्ध विधैतदूषणं करोति भर्कि गुरुपञ्चके थुते ।
श्रुतान्विते जैनगृहे जिनाकृती जिनेशतत्त्यैकरुचिः शरीरवान् ॥ ३६ ॥ "
हेतुषु भवानभोगेषु विरागभावं विवधाति ॥ ३२ ॥ क्वचित् कलत्रपुत्रादिनिमित्ततः विनिन्द्यरूपे कर्मणि विहिते अपि मया सतां विनिन्दितम् इदं कर्म कृतम् इति भव्यः चकितः सन् विनिन्दति ॥ ३३ ॥ यथा प्रतलोहे पतिर्त पयः (तथा) कथिताः दोषाः कथंचन गलन्ति । आत्महितोद्यतो जनः येषु दूषणं न तेषां व्रतिनां स्वरूषण निवेदयति ॥ ३४ ॥ निमि ततः भूतम् अनर्थकारण कोपादिचतुष्टयं यस्य मानसे, पयसि रेखा इव स्थिति न करोति सः शान्तभाव विशुद्धवर्शनः अस्ति ॥ ३५ ॥ जिनेशतत्त्वैकरूचिः शरीरवान् विशुद्धभावेन विधूतदूषणं ( यथा स्यात् तथा ) गुरुपञ्चके, भूते श्रुतान्विते, जनगृहे, जिनकी भक्ति करोति ॥ ३६ ॥ गौः नवे वर्णके व सुदर्शनः निरस्तमिथ्यात्वमले अतिपादने जिनाभिते
[ 159 : ७-३२
रहता है ॥ ३२ ॥ संसारके दुखसे भयभीत हुआ भव्य जीव ( सम्यग्दृष्टि ) यदि कदाचित् स्त्री और पुत्र आदिके निमित्तसे लोकनिन्द्य कार्य भी करता है तो वह ' मैंने यह सज्जनोंसे निन्दित खोटा कार्य किया है' इस प्रकार आत्मनिन्दा करता है ॥ विशेषार्थ - यद्यपि सम्यग्दृष्टि जीव जिनदेव और उनके द्वारा प्ररूपित पदार्थस्वरूपके विषय में पूर्णतया श्रद्धान करता है तथा वह संसार परिभ्रमण के दुखसे भयभीत भी रहता है तो भी चारित्र मोहमोहनीय (अप्रत्याख्यानावरण आदि) के वशीभूत होकर वह जब तब विषयजन्य सुखमें तथा निमित्त आरम्भादिमें भी प्रवृत्त होता है । परन्तु चूंकि वह हेयको हेय और उपादेयको उपादेय ही समझता है अत एक ऐसे कार्योंको करता हुआ भी बहू निरन्तर आत्मनिन्दा किया करता है। इसी कारण वह पापसे सन्तप्त नहीं होता है || २३ || जिस प्रकार अतिशय रूपे हुए छोके ऊपर गिरा हुआ पानी नष्ट हो जाता है उसी प्रकार गुरुसे कहे गये अपने दोष भी किसी न किसी प्रकारसे नष्ट हो जाते हैं। इसीलिये आत्मकल्याण करनेमें उथत प्राणी जिन संयमी जनों में वह दूषण नहीं है उनसे अपने उस दोषको कहता है ॥ ३४ ॥ जिस जीव के मनमें अनर्थकी कारणभूत क्रोधादि कषायें किसी निमित्तके वश उत्पन्न हो करके भी जलमें की जानेवाली रेखाके समान स्थितिको नहीं करती हैं वह शान्त स्वभाववाला जीव निर्मल सम्यग्दृष्टि होता है। [अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार जलमें की गई रेखा तत्काल ही नष्ट हो जाती है-स्थिर नहीं रहती है - उसी प्रकार निर्मल सम्यग्दृष्टि जीवके यदि कदाचित् किसी निमित्तविशेष को पाकर कषाय उत्पन्न होती भी है तो वह तत्कालही नष्ट हो जाती है-स्थिर नहीं रहती है ] ॥ ३५ ॥ जिनेन्द्र भगवान के द्वारा प्ररूपित तत्त्वमें असाधारण रुचि रखनेवाला सम्यग्दृष्टि जीव विशुद्ध परिणामोंसे दोषोंको नष्ट करके पांचों परमेठी, श्रुत, श्रुतसे संयुक्त संयमी जन, जिनमन्दिर और जिनप्रतिमाके विषय में भक्ति करता है || ३६ ||
१ सरमन ८ सनयेषु । ९स १४ सदूषणां । १५
सभ्रांत ३ स सद्भुवि । ३३ ॥ ४ स इई तेजस । १०.स २५ ।। ११ स स्थितं जना । १६ स ३७ ॥
५ स विनिंदितां । ६ स ३४ ॥ ७स परः पुन चतुष्टय स्थिति । १२ स सशान्तं । १३ स ३६ ।।