Book Title: Subhashit Ratna Sandoha
Author(s): Amitgati Acharya, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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सुभाषितसंदोहः
149) अलब्धदुर्गादिरसो रखावहं तदुद्भचो निम्बरसं कुभिर्यथा । भष्टजैनेन्द्रवचोर सायनस्तथा कुतत्त्वं मनुते रसायनम् ॥ २२ ॥ 150) ददाति दुःखं बहुधातिदुःसहं तनोति पापोपचयोन्मुख मतिम् । यथार्थबुद्धि विधुनोति पावन करोति मिथ्यात्वविषं न किं नृणाम् ॥ २३ ॥ 151) अनेकधेति प्रगुणेन चेतसा विविच्य मिध्यात्वमलं सदूषणम् ।
विमुच्य जैनेन्द्रमतं सुखावहं भजन्ति भव्या भवदुःखभीरवः ॥ २४ ॥ 152 ) विमुक्तसंगादिसमस्तदूषणं विमुक्ततत्त्वप्रतिपत्तिमुज्ज्वलम् ।
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वदन्ति सम्यक्त्यमनन्तदर्शना जिनेशिनो नाकिनुतापिङ्कजाः ॥ २५ ॥ ३ 153) परोपदेशेन शशाङ्कनिर्मलं नरो निसर्गेण तदा तदद्भुते । क्षयं शर्म मित्रमुपति मले यथार्थतस्यैकदचेर्निषेधके ॥ २६ ॥ * अलब्धदुग्धादिरसः निम्बरसं रसावहं मनुते तथा अष्टर्जनेन्द्रवचोरसायनः जनः कुतत्त्वं रसायनं मनुते ॥ २२ ॥ मिथ्यास्वविषं नृणाम् अतिदुःसहं बहुधा दुःखं ददाति । मति पापोपचयोन्मुखां तनोति । पावनी यथार्थबुद्धि विधुनोति । तत् किं न करोति ॥ २३ ॥ भवदुःखभीरषः जनाः प्रगुणेन चेतसा सदूषणं मिथ्यात्वमलम् इति अनेकधा विविच्य विमुच्य सुखावहं जैनेन्द्रमतं भजन्ति ॥ २४ ॥ अनन्तदर्शनाः नाकिनुतापिङ्कजाः जिनेशिनः विमुक्तसंगादि ( शङ्कादि) समस्तदूषणं विमुक्ततत्त्वाप्रतिपत्तिम् उज्जलं सम्यक्त्वं वदन्ति ।। २५ ।। यथार्थतत्त्वेकरुचेः निषेधके मले क्षयं शर्मा, मिश्रम् पदार्थका अययार्थ स्वरूप ही रसायन ( हितकर औषध ) प्रतीत होता है ॥ २२ ॥ मिथ्यात्वरूप विष ● मनुष्यों का क्या क्या अहित नहीं करता है ? अर्थात् वह उनका अनेक प्रकारसे अहित करता है- वह उन्हें अनेक प्रकारसे अत्यन्त असह्य दुखको देता है, उनकी बुद्धिको पापसंचयके उन्मुख करता है, तथा निर्म यथार्थबुद्धिको नष्ट करता है ॥ २३ ॥ संसारके दुखसे डरनेवाले भव्य जीव इस प्रकार सरळ चित्रासे बहुत दोषों से संयुक्त मिथ्यात्वरूप मलका अनेक प्रकारसे विचार करके उसे छोड़ देते हैं और सुखकारक जैन मतका आराधन करते हैं ॥ २४ ॥ जो अनन्तदर्शन ( अनन्तचतुष्टय) से सहित हैं तथा जिनके चरणकमलोंमें देवगण नमस्कार करते हैं ऐसे वे जिनेन्द्र देव निर्मल सम्यग्दर्शनको शंका आदि समस्त दोषोंसे तथा अतत्त्व श्रद्धानसे रति बतलाते हैं ॥ विशेषार्थ – जीवादि तत्वोंके यथार्थ श्रद्धानको सम्यग्दर्शन कहते हैं। उसके ये निम्न पच्चीस दोष हैं जिनके कि दूर करनेपर ही वह निर्मल रह सकता है- शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, मूढदृष्टि, अनुपगूहन, अस्थितीकरण, अवात्सल्य और अप्रभावना ये आठ; ज्ञानमद, पूजामद, कुलमद, जातिमद, जलमद धनमद, तपमद, और रूपमद ये आठ मद, कुगुरु, कुदेव, कुधर्म, कुगुरुभक्त, कुदेवभक्त और कुधर्मभक्त ये छछ अनायतन; तथा धर्ममूढता, गुरुमूढता और देवमूढता ये तीन मूढतायें ॥ २५ ॥ तत्त्वोंके यथार्थ श्रद्धानको रोकनेवाले मलके - अनन्तानुबन्धी चार और दर्शनमोइनीय तीन इन सात प्रकृतियोंके क्षय, उपशम अथवा क्षयोपशमको प्राप्त होनेपर मनुष्य (जीव ) परके उपदेश से अथवा स्वभावसे ही चन्द्रके समान निर्मल उस सम्यग्दर्शनको प्राप्त करता है ॥ विशेषार्थ – यथार्थ तत्त्वश्रद्धानरूप वह सम्यग्दर्शन तीन प्रकारका है - औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक । जो सम्यग्दर्शन अनन्तानुबन्धी क्रोध आदि उपर्युक्त सात प्रकृतियो उपशमसे प्राप्त होता है वह औपशमिक, जो उनके क्षयसे प्राप्त होता है वह क्षायिक, तथा जो उनके क्षयोपशमसे प्राप्त होता है वह क्षायोपशमिक कहलाता है । इनके अतिरिक्त उसके ये दो भेद उत्पत्तिकी अपेक्षासे भी हैं - निसर्गज और अधिगमज । जो सम्यग्दर्शन परोपदेश आदिके बिना पूर्व संस्कारसे स्वभावतः ही उत्पन्न हो जाता है वह निसर्गज सम्यग्दर्शन कहा जाता है। इसके विपरीत जो सम्यग्दर्शन परोपदेश
४ सन्मुखं, 'त्सु
१ स दुःखादि । २ स रसायणं । ३ स २३ ॥ ८२५ ॥ "शंका", "का" १४ स समं । १५ स मपागते। १६ स येधिके, 'पेधको ।
१० स तत्त्वम" |
७ स विवेच्य ।
१३ स भुता ।
[ 149 : ७-२२
।
५ स विधुनाति । ११ सतांहि ।
१७ स २७ ॥
६ स २४ ॥ १२ स २६ ॥