Book Title: Subhashit Ratna Sandoha
Author(s): Amitgati Acharya, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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198 : ८-१९]
८. जाननिरूपणाविशत् 194) ज्ञानं तृतीयं पुरुषस्प नेत्रं समस्ततत्त्वाविलोकवनम् ।
तेजो ऽनपेक्ष विगतान्तरायं प्रवृत्तिमस्सबंजगत्त्रये ऽपि ॥ १५ ॥ 195) निःशेषलोकव्यवहारवक्षो ज्ञानेन मयों महनीयकोतिः।।
सेव्यः सतां संतमसेन होतो विमुक्तिकृत्यं प्रति बदचित्तः ॥१६॥ 196) धर्मार्थकामव्यवहारशूग्यो "विनष्टनिःशेषविचारसुतिः।
रात्रिदिवं भक्षण सक्तचित्तो शानेन होनः पधुरेव शुवः॥१७॥ 197) तपोवया दानयमक्षमाधाः सर्वे ऽपि पुंसां महिमा गुणा ये।
भवन्ति सोल्याय न ते अनस्य ज्ञान विना तेन तदेषु पूज्यम् ॥१८॥ 198) ज्ञानं विना नात्यहितानिवृत्तिस्ततः प्रवृत्तिन हिते जनानाम् ।
ततो न पूजितकर्मनाशस्ततो न सौख्यं लभते ऽयभीष्टम् ॥१९॥ हुशेन विना बिजेतुं न शक्यः ॥ १४ ॥ समस्ततत्वार्यविलोकदक्षं, तेजोऽनपेक्षं, विगतान्तराय, सर्वजगत्यये ऽपि प्रवृत्तिमत् शार्न पुरुषस्य तृतीयं नेयम् ।। १५ ।। मर्मः, शानेन निःशेषलोफव्यवहारदक्षः, महनीयकोतिः, संतमसेन होन:, विमुषितकृत्यं प्रति बद्धचित्तः, सतां सेव्यः (भवति) ॥ १६ ॥ ज्ञानेन होनः (मनुजः) धर्मार्थकामध्यबहारशून्यः, विनष्टनिःशेषविचारपुद्धिः, रात्रिदिवं भक्षणसक्तचितः शुबः पशुः एव ।। १७ ।। ये पुंसां तपोदयाशनयमक्षमाचाः सर्वेऽपि महिमाः गुणाः, ते जाने विना जनस्य सौख्याय न भवन्ति । तेन एष (गुणेषु) तत् (ज्ञान) पूज्यम् ॥ १८ शान दिना जनानाम् अहितात, । किसी प्रकारको रुकावटके तीनों लोकोंमें सर्वत्र गतिशील है । भावार्थ-मनुष्यके दो नेत्र होते हैं किन्तु वे समस्त
पदार्थोको जाननेमें समर्थ नहीं हैं बौर न वे सर्वलोकको ही देख सकते हैं। उनके सन्मुख जो स्थिर स्थूल | पदार्थ आता है मात्र उसको ही देख सकते हैं। यह भी प्रकाश होने पर ही देख सकते हैं। किन्तु ज्ञानरूपी नेत्र । उन दोनोंसे विलक्षण है। वह विना प्रकाशके ही सर्वत्र सबको जान सकता है ॥ १५ ॥ ज्ञानके द्वारा मनुष्य
समस्त लोक व्यवहार में प्रवीण हो जाता है। उसका यश विश्वमें फैल जाता है। सज्जन भी उसकी सेवा करते हैं। वे उसके पास ज्ञानार्जनके लिये आते हैं। वह अज्ञानरूपी अन्धकारसे रहित होता है तथा मुक्तिरूपी कार्यको सम्पादन करने में अपने चित्तको दृढ़तापूर्वक लगाता है ॥ १६ ॥ किन्तु जो शानसे शून्य होता है वह कोरा पशु ही होता है; क्योंकि जैसे पशु धर्म अर्थ और काम पुरुषार्य सम्बन्धी व्यवहारोंको नहीं जानता। वैसे ही वह भी उनसे अनभिज्ञ रहता है । उनके विषयमें यथेच्छ प्रवृत्ति करता है। पशुके समान ही उसकी समस्त विचारशील बुद्धि नष्ट हो जाती है। और वह रात दिन पशु की तरह हो खाने पीनेमें लगा रहता है । उसे भक्ष्य अभक्ष्यका विवेक नहीं रहता ॥ १७ ॥ इस संसारमें तप-वस-दयान्दान-प्रशम-क्षमा प्रभृति पुरुषके जो मुख्य गुण है, जिनके धारण करनेसे जोवको शाश्वत सुखकी प्राप्ति होती है वे सब ज्ञानकी सहायतासे ही सुखदायी होते है । जानपूर्वक किये गये व्रत-तप मुक्तिके कारण हो सकते है । विना ज्ञानके वे सुख प्राप्तिके कारण नहीं हो सकते है। इसलिये उन सब मुख्य गुणोंमें मी एक ज्ञान ही सबसे श्रेष्ठ मुख्य गुण है !। १८ ॥ ज्ञानके विना मनुष्यको अहितरूप पाप क्रियाओंसे निवृत्ति नहीं होती और आत्महित कार्यों में प्रवृत्ति नहीं होती। हित कार्यमें प्रवृत्ति न होनेसे पूर्व संचित कोका नाश भी नहीं हो सकता । संसार दुःखका नाश हुये विना सब जीवोंका अंतिम अभीष्ट जो शाश्वत् सुख, वह भी उनको प्राप्त नहीं हो सकता। विशेषार्थ-ज्ञानी जीव ज्ञानके
१ स दक्ष्यं, बिलोकक्ष। २ सपेश्यं । ३ स विमुक्त । ४ स प्रतिबद्ध । ५ स विनिष्ट। ६ सशक्त । ७ स दानश्रमसनवद्धिः।