Book Title: Subhashit Ratna Sandoha
Author(s): Amitgati Acharya, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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[ ९. चारित्रनिरूपणत्रयस्त्रिंशत् ] 210) सदर्शनज्ञानबकेन भूता पापहियाया विरतिस्त्रिया था।
जिनेश्वरैस्तदवितं चरित्र समस्तकमलयहेतुभूतम् ॥१॥ 211) शमं क्षयं मिभमुपागतायो तमानि कर्म तो विधातः । .
द्विषा सरागेतरभेवतश्च प्रजायते 'सामनसायकपम् ॥२॥ सदर्शनशानबलेन भूता या पापक्रियायाः विषा वितिः, तत् जिनेश्वरः समस्तकर्मक्षयहेतुभूतं परिवं मदितम् ॥ १॥ व्रत् नाशि कर्म शमं क्षयं मित्रम् उपागतायां प्रातो अतः विषा (प्रजायते)। च असाधनसाप्यस्पं सरानेतरभेदतः विषा
सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानके बलसे जो पापक्रियाओंसे मन-वचन-काय पूर्वक विरक्तिरूप परिणाम उत्पन्न होता है उसे सर्वशदेवने सम्यकचारित्र कहा है। सम्पग्दर्शन-सम्यग्ज्ञानपूर्वक चारित्र ही समस्त कर्मोंका क्षय करनेमें प्रधान कारण है। विशेषार्थ-सर्वत्र प्रतिपादित सप्ववत्वोंका यषा श्रद्धानशान होनेसे हित-अहितका विवेक जागृत होता है। अनादिकालसे मिथ्यात्वमूलक जो विषय-कषाय-भावोंके साथ एकत्वाध्यास या वह दूर हो जाता है। संसारमें परिभ्रमण करानेवाले राग-द्वेषमोड़ भावोंका नाश करनेका अभ्यास प्रयत्न करता है। पंचेन्द्रियोंके विषयोंसे तथा पापक्रियाओंसे मन-वचन-कायसे घृणा-विरति उत्पन्न होती है उसोका नाम सम्यक्चारित्र है ॥ १ आत्माके चारित्रगुण घातक चारित्रमोहनायकर्मके उपशम-मय तथा क्षयोपशम होनेपर जो चारित्रगुण प्रगट होता है वह सम्पचारित्र है। इसलिये उसके तीन भेद हैं। अथवा सरागचारित्र तथा वीतराग चारित्रके भेदसे सम्पचारित्र दो प्रकारका कहा गया है। उनमें सरामचारित्र साधनरूप है। और वीतराग चारित्र साध्यरूप है। विशेषार्थ-इस एकोकमें चारित्रके भेद गिनाये हैं। सम्यक्चारित तीन प्रकारका है--१. औपशमिक चारित्र, २. क्षायिक पारित्र, ३. क्षायोपशमिक चारित्र । चारित्रमोहनीयको २१ प्रकृतियोंका उपशम होनेपर जो चारित्र गुण प्रकट होता है वह भोपशमिक चारित्र है। यह चारित्र उपशम श्रेणी चढ़नेवाले उपशम सम्यग्दृष्टि अथवा क्षायिक सम्यग्दृष्टिको गुणस्थान ७ से ११ तक होता है। चारित्रमोहनीयको २१ प्रतियोंका क्षय होनेपर जो चारित्रगुण प्रगट होता है उसे क्षायिक चारित्र कहते हैं । यह चारित्र क्षायिक सम्पम्हष्टि को हो से १४ गुणस्थान तक (११वा उपशान्तमोह गुणस्पान छोड़कर ) तथा सिद्ध जीवोंको होता है। मायोपमिकचारित-पारित्रमोहनीय कर्मके कुछ सर्वघाति कर्मोका उदयाभावी क्षय (उदयक्षय) तथा कुछ सर्वघाति कोका सदवस्थारूप उपशम और देशवासिका उदय होनेपर जो चारित्रगुण प्रगट होता है उसे क्षायोपशमिक चारित्र कहते हैं। यह चारित्र से ७ गुणस्थान सक होता है। तथा चारित्रके दूसरे प्रकारसे दो मेद कहे हैं। १. सराग चारित्र, २. वीतराग चारित्र । यहाँ राग का अर्थ प्रमाद है। प्रमाद सहित जो चारित्रगुण प्रगट होता है उसको सरागचारित्र कहते हैं। यह मारित्र प्रमत्तगुणस्थानवर्ती मुनिके होता है। प्रमादका अभाव होनेपर जो चारित्रगुण प्रगट होता है उसे वीतरागचारित्र कहते हैं। यह चारित्र अप्रमत्त ७वे गुणस्थानसे लेकर १४ गुणस्थान तक होता है। इनमें बीसराग
१ स विरतस्त्रिया । २ स सम्यक्तकर्मत्त्वय । ३ स वनाशिकर्म । ४ स om. s।