Book Title: Subhashit Ratna Sandoha
Author(s): Amitgati Acharya, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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77:४-१५]
४. लोभनिधारणविंशतिः 73) कुन्तासिशक्तिभरतोमरतद्वलादिनानाविधायुधभयंकरमुग्रयोधम् । ___संग्राममध्यमधितिष्ठति लोभयुक्तः स्वं जीवितं तृणसम विगणय्य जीवः ॥ ११ ॥ 74) अत्यन्तभीमवनजीवगणेन पूर्ण दुर्ग वनं भवभृतां मनसाप्यगम्यम् ।।
चौराकुलं विशति लोभवशेन मयो नो धर्मकर्म विदधाति कदाचिदशः ॥ १२ ॥ 75) जीवानिहन्ति विविध वितयं प्रवीति स्तेयं तनोति भजते वनितां परस्य। ___ गृह्णाति दुःखजननं धनमुप्रदोष लोमग्राहस्य वशवर्तितया मनुष्यः ॥१३॥ 76) उद्यन्महानिलवशोत्थविचित्रवीचिविक्षिप्तनक्रमकरादिनितान्तभीतिम् ।
अम्भोधिमध्यमुपयाति विवृद्भवेलं लोभाकुलो मरणदोषममन्यमानः ॥ १४ ॥ 77) निःशेषलोकवनदाहविधी समर्थ लोमानलं निखिलतापकर ज्वलन्तम् ।
झानाम्बुवाहजनितेन विवेकिजीवाः संतोषविष्यललिलेन शमं नयति ॥१५॥ अध्येति नृत्यति लुनाति भिनोति नीति क्रीणाति हन्ति वपते चिनुते बिभेति मुष्णाति गायति धिनोति (प्रीणयति) बिभति भिन्ते सीव्यति पणायति (स्तौति) च याचते ॥१०॥ लोभयुक्तः जीवः स्वं जीवितं तृणसमं विगणम्य कुन्तासिशक्ति (कामूः) भर (अतिशयः) तोमरतबलादि (तस्मिन् लक्ष्ये एवं बलं यस्य स तबल: बागविशेषः तदादि)-नानाविधायुधभयंकरम् उग्रयोधं संग्राममध्यम् अधितिष्ठति ।।११।। अशः मर्त्यः लोभवशेन अस्पन्तभीमवनजीरगणेन पूण भवभूतां मनसा अपि अगम्यं चौराकुस दुर्ग (दुर्गम) वनं विशति कदाचित् धर्मकर्म नो विदधाति ॥ १२॥ लोभग्रहस्य वशवतितया मनुष्यः जीवान् निहन्ति विविधं वितयं ब्रवीति स्तेयं तनोति परस्य वनितां भजते उग्रदोष दुःसजननं धनं गृहाति ।।१३।। लोभाकुलः (नरः) मरगदोषम् अमन्यमानः उद्यन्महानिलवसोत्पविचित्रवीचिविक्षिप्तनकमकरादिनितान्तभीति विवृद्धवेलम् अम्भोधिमध्यम् उपयाति ।। १४॥ विवेकिजीवा: ज्ञानाम्बुवाजनितेन संतोषविष्यसलिलेन
जनित पापसे होनेवाले दीर्घ संसारपरिभ्रमणका विचार नहीं करता है ॥९॥ मनुष्य लोभके कारण अध्ययन करता है-अनेक विषयोंका ज्ञान प्राप्त करता है, नाचता है, फसल आदिको काटता है, नापता-सौलता है, दूसरोंकी स्तुति करता है, खरीदता है-बाजारमें अनेक प्रकारकी वस्तुओंको खरीदता और बेचता है, हत्या करता है-चाण्डाल आदिका धंधा करता है, बोता है-खेती करता है; गृह आदिको बनाता है, भय खाता है, चोरी करता है, गान करता है, प्रीति करता है, बोझा धारण करता है, विदारण करता है, कपडे सीता है, प्रतिज्ञा करता है, और भीख मांगता है ॥ १० ॥ लोभयुक्त जीव अपने जीवनको तृणके समान तुच्छ समझकर ऐसे युद्ध के मध्यमें स्थित होता है जो कि भाला, तलवार, शक्ति (आयुधविशेष ), बाण और लक्ष्यवेधक विशेष बाण आदि अनेक प्रकारके शस्त्रोंसे भयको उपन्न करनेवाला तथा बलवान् योद्धाओंसे परिपूर्ण होता है ॥ ११ ॥ अज्ञानी मनुष्य लोभके वश होकर ऐसे दुर्गम वनमें तो प्रविष्ट होता है जो कि अतिशय भयानक जंगली जीवों (सिंह-व्याघ्रादि) के समूहसे परिपूर्ण है, जिसके विषयमें प्राणी मनसे भी विचार नहीं कर सकते हैं, तथा जो चोरोंसे व्याप्त है । परन्तु वह धर्मकार्यको नहीं करता है ॥१२॥ मनुष्य लोभरूप पिशाचके वशमें होकर जीवोंका घात करता है, अनेक प्रकारका असत्य वचन बोलता है, चोरी करता है, परस्त्रीका सेवन करता है, तया महान् दोषोंसे परिपूर्ण दुखदायक धनको ग्रहण करता है। अभिप्राय यह कि लोभी मनुष्य हिंसा आदि पांचों ही पापोंको करता है ॥ १३ ॥ लोभसे व्याकुल मनुष्य अपने मरणके कटको भी न देखकर ऐसे समुद्र के मध्यमें पहुंचता है जिसका कि किनारा जलकी वृद्धिसे बढ़ रहा है तथा जो उत्पल हुई महावायुके वश उठनेवाली विचित्र लहरोंके द्वारा इधर उधर फेंके जानेवाले घड्याल एवं मगर आदि हिन जलजंतुओंसे अतिशय भयको उत्पन्न करनेवाला होता है ।। १४ ॥ जो जलती हुई लोभरूप अग्नि समस्त लोकरूप
१स"तजबलादि',' तज्जलादि, "तद्वतादि। २ सयोधा । ३ स om, कर्म। ४ स लामा । ५ स समं । ६ स नियन्ते नयन्ते।