Book Title: Subhashit Ratna Sandoha
Author(s): Amitgati Acharya, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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[ 88 : ५-६
सुभाषितसंदोहः
88) एकैकमपि भजताममीषां संपद्यते यदि कुनान्तगृहातिथित्वम् । पञ्चाक्षगोचररतस्य किमस्ति वाच्यमार्थमित्यमलधीरधियस्त्यजन्ति ॥ १६ ॥ 80) दन्तीन्द्रदन्तदनेकविधौ समर्थाः सन्त्यत्र रौद्रमृगराजबधे' प्रत्रीणाः ।
आशीविषोरगवशीकरणे ऽपि दक्षाः पञ्चाक्षनिर्जयपरास्तु न सन्ति मर्त्याः ॥ ७ ॥ 90) संसारसागरनिरूपणदत्तचित्तः सन्तो वदन्ति मधुरां विषयोपसेवाम् ।
आदौ विपाकसमये कटुकां नितान्तं किंपाकपाकफलभुक्तिमिवाङ्गभाजाम् ॥ ८ ॥ (91) तारो भवति तत्त्वविदस्तदोषो मानी मनोरमगुणो मननीयवाक्यैः । शूरः समस्तजनतामद्दिर्तः कुलीनो यावषीकविषयेषु न संकिमेति ॥ ९॥
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बराकः असौ कुरः श्रोत्रेन्द्रियेण समवर्तमुखं (यमास्यं ) प्रयाति ॥ ५ ॥ एकैकम् अक्षविषयं भजताम् अमीषां यदि कृतान्तगृहातिथित्वं संपद्यते ( तहि ) पञ्चाक्षगोचररतस्य किं वाच्यमस्ति इति अमलधीरधियः अक्षार्थ त्यजन्ति ॥ ६ ॥ अव मर्त्याः दन्तीन्द्रदन्तदलनेकविधौ समर्थाः सन्ति । रौद्रमृगराजवधे प्रवीणाः सन्ति । आशीवियोरगवशीकरणे ऽपि दक्षाः सन्ति । तु पञ्चाक्षनिर्जयपराः न सन्ति ॥ ७ ॥ संसारसागरनिरूपणदत्तचिताः सन्तः अङ्गभाजां किपाक - ( कुत्सितः पाकः परिणामो यस्य सः किम्पाकः ) ११ फलभुक्तिमिव विषयोपसेवाम् आदी मधुरां विपाकसमये नितान्तं कटुकों वदन्ति ॥ ८ ॥ यावत् नरः हृषीकविषयेषु सबित न एति तावत् (सः) तस्मवित्, अस्तदोषः, मानी मनोरमगुण:- मननीयवाक्पः शूरः
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को खाकर वृद्धिंगत हुआ है और जो वह विलासपूर्वक हरिणियोंके साथ कीडा किया करता है वह बेचारा मृग कर्ण इन्द्रियके वशीभूत होकर उत्तम गानके सुननेमें अपने मनको अतिशय आसक्त करता है और इसीलिये यमके मुखको प्राप्त होता है- व्याधके द्वारा पकड़कर मारा जाता है ॥ ५ ॥ यदि एक एक इन्द्रिय विषयका सेवन करनेवाले इन हाथी आदि ( मछली, भौंरा, पतंग और हरिण ) जीवों को यमराज के घरका अतिथि बनना पड़ता है मरना पडता है तो फिर जो मनुष्य उन पांचों ही इन्द्रियोंके विषय में अनुरक्त रहता है उसके विषयमें क्या कहा जा सकता है ? अर्थात् वह तो मरण आदिके अनेक कष्टों को सहता ही है। इसीलिये निर्मल और धीर बुद्धिके धारक मनुष्य इन्द्रियविषयका परित्याग करते हैं ॥ ६ ॥ जो गजराजके दांतोंके तोडनेरूप अनुपम कार्यक्रे करनेमें समर्थ हैं, जो भयानक सिंहका वध करनेमें चतुर हैं, सथा जो आशीविष सर्पके वश करनेमें भी समर्थ हैं ऐसे मनुष्य तो यहां बहुत हैं। परन्तु जो पाचों इन्द्रियोंके जीतनेमें तत्पर हों ऐसे मनुष्य यहां नहीं हैं । [ अभिप्राय यह कि पांचों इन्द्रियोंके ऊपर विजय प्राप्त करना अतिशय कठिन है। जो विवेकी मनुष्य उनको वशमें करते हैं वे प्रशंसा के योग्य हैं और बेही आत्मकल्याण करते हैं ] ॥ ७ ॥ जो सज्जन संसाररूप समुद्रके निरूपण में अपने चित्तको देते हैं संसारके खरूपको जानते हैं - वे विषयोंके सेवनको महाकालफल विषफलके मक्षणके समान प्रारम्भ में सेवन करनेके समयमें ही प्राणियोंके लिये मधुर, परन्तु फल देनेके समयमें उसे अतिशय कटु बतलाते हैं। विशेषार्थ - अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार विषफल खाते समय में तो स्वादिष्ट प्रतीत होता है, परन्तु परिणाम में वह प्राणघातक ही होता है; उसी प्रकार ये इन्द्रियविषय भी भोगते समय में तो आनन्ददायक दिखते हैं परन्तु परिणाममें वे अतिशय दुखदायकही सिद्ध होते हैं । कारण कि रोगादिजनक होनेसे वे इस भय भी प्राणीको कष्ट देते हैं तथा नरकादि दुर्गतिको प्राप्त कराकर परभवमें भी वे उसे दुख देते हैं ॥ ८ ॥ जब तक मनुष्य इन्द्रियोंके विषयोंने आसक्ति को नहीं प्राप्त होता
१२ सचिता । ३ सविधुरां । ४ स भवते । ५ स चान्यः ६ स सहितः, जज्ञसामहिनः । ७ स शक्ति ।