Book Title: Subhashit Ratna Sandoha
Author(s): Amitgati Acharya, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
View full book text
________________
160 : ३-१८]
३. मानमायानिषेधविंशतिः B6) पत्रावलोक्य दिवि दीनमना विभूतिमन्यामरेवधिककान्तिसुखादिकेषु ।
प्राप्याभियोगएदचीं लभते ऽतिदुःखं तरैति वञ्चनपरः पुरुषो निवासम् ॥१४॥ 57) या' मातृभर्तृपितृयान्धवमित्रपुत्रवस्त्राशनाभरणमण्डनसौख्यहीनाः ।
दीनानना मलिननिन्दितवेषरूपा नारीषु तासु भवमेति नरोनिकरया ॥१५॥ 58) शीलवतोचमतपःशमसंयुतो ऽपि नात्रानुते निकृतिशल्यधरों मनुष्यः।। ____ आत्यन्तिकी श्रियमवाधसुखस्वरूपां शल्यान्वितो विषिषधान्यधनेश्वरो वा ॥१६॥ 59) क्लेशार्जित सुखकरं रमणीयमय॑ धान्यं कृषीवलजनस्य शिखीव सर्वम्।।
भस्मीकरोति यहुधापि जनस्य सत्यं मायाशिस्त्री प्रचुरदोषकरः क्षणेन ॥ १७॥ 80) विद्वेषवैरिकलहासुखधातभीतिनिर्भर्सनाभिभवनासुविनाशनादीन् ।
दोषानुपैति निखिलान्मनुजो ऽतिमायी वुद्भवेति धारमतयो न भजन्ति मायाम् ॥१८॥ पासम् अधितिष्ठति या प्रियाप्रियवियोगसमागमान्यप्रेष्यत्वधायधनबान्धवहीनताबेंः मनसा अपि असा विविध दुःख प्रयाति ॥ १३॥ यत्र दिवि अधिककान्तिसुखादिकेषु अन्यामरेषु विभूतिम् अवलोक्य आभियोगपदवों प्राप्य अतिदुःख लभते, वञ्चनपरः पुरुषः तत्र निवासम् एति ।। १४॥ याः मातृभर्तृपितृबान्धवमिनमुन्नवस्त्राशनाभरणमण्डनसोल्पहीना: बीनानना: मलिननिन्दितवेषापाः तासु नारीषु नरः निकृत्या भवमेति ॥ १५ ॥ शल्यान्वितः विविधधान्यधनेश्वरः वा (इव) निकृतिशल्यघर: मनुष्य; अन्न शीलवतोद्यमतपःशमसंयुतोऽपि अबाघसुखस्वरूपाम् आत्यन्तिकी प्रियंन अश्नुते ॥ १६॥ कृषीवलजनस्य क्लेशाजितं सुखकरं रमणीयम् अयं सर्व धान्यं शिखी इव प्रचुरदोषफरः मायातिखी जनस्य क्लेशाजित मुखकरं रमणीयं सर्व सत्यम् अपि बहुधा क्षणेन भस्मीकरोति ॥ १७ ॥ अतिमायी मनुजः विद्वेषवैरकलहासुखपावभीति(मनुष्य पर्याय) में स्थित होता है जहांपर वह इष्टवियोग, अनिष्टसंयोग, दूसरोंकी दासता, धान्यहीनता, धनहीनता और बन्धुहीनता आदि अनेक कारणोंसे नाना प्रकारके असह्य मानसिक दुखको प्राप्त होता
है ॥ १३ ॥ जिस देवपर्यायमें प्राणी अपनेसे अधिक कान्ति और सुख आदिसे सम्पन्न दूसरे देवोंकी + विभूतिको देखकर मनमें दीनताको धारण करता हुआ आभियोग्य पदवीको प्राप्त होता है-आभियोग्य जातिका
देव होता है और अतिशय दुखको पाता है उस निकृष्ट देवपर्यायमें वह मायाचारी मनुष्य निवासको प्राप्त होता है | १४ || मनुष्य मायाचारसे उन त्रियोंमें जन्म लेता है जो कि माता, पत्ति, पिता, अन्य हितैषी बन्धुजन, मित्र, पुत्र, वस्त्र, भोजन, आभरण, अन्य अलंकारसामग्री एवं सुख; इनसे रहित होकर मलिन एवं निन्दित वेष और आकृतिके साथ मुखपर दीनताको धारण करती हैं ||१५|| जिस प्रकार चिन्तायुक्त मनुष्य अनेक प्रकारके धान्य एवं धनका स्वामी होकर भी निर्बाध सुखको नहीं प्राप्त होता है उसी प्रकार मायाशल्यको धारण करनेवाला (मायाचारी) मनुष्य यहाँ शील व व्रतोंके उधन तथा तप एवं शमसे संयुक्त होकर भी निर्वाध सुखस्वरूप आत्यन्तिकी श्रीको-मोक्षलक्ष्मीको नहीं प्राप्त होता है | विशेषार्य-तत्वार्थसूत्र (७-१८) में कहा गया है कि जो माया मिथ्यात्व और निदान इन तीन शल्योंसे रहित बही व्रती हो सकता है। अत एव जो इस मायाशल्यसे सहित है वह भले ही व्रतों व शीलोंके परिपालनका प्रयत्न करता हो तथा तप एवं शमसे भी संयुक्त हो, किन्तु वह इन व्रतश्रीलादिके फलभूत मुक्तिसुखको नहीं प्राप्त कर सकता है। कारण कि मायाशल्यके रहते हुए वे सब शील मतादि व्यर्थ सिद्ध होते हैं ।। १६ । जिस प्रकार अग्नि किसान जनके कष्टसे उत्पादित, सुखकारक, रमणीय एवं बहुमूल्य सब धान्यको प्रायः क्षणभरमें भस्म कर देती है उसी प्रकार अनेक दोषोंको उत्पन्न करनेवाली मायारूप अग्नि भी मनुष्यके कष्टके उत्पादित, सुखकारक, रमणीय एवं बहुमूल्य सब सत्यसंभाषणको क्षणभर में नष्ट कर देती है ॥ १७ ॥ अतिशय मायाचारी मनुष्य द्वेष (क्रोध ), वैर, युद्ध, दुख, हिंसा,
स जामातृ । २ मा 'गना । ३ स होनः । ४ स 'नना । ५ स 'रूपो। ६ स आत्यंतकी, की। " स रूपं 1 ८ समर्थ, 'मर्थ । ९ स सर्वः, सर्वो। १० स "भवनां ।