Book Title: Subhashit Ratna Sandoha
Author(s): Amitgati Acharya, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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सुभाषितसंदोहः
61) या प्रत्ययं बुधजनेषु निराकरोति पुण्यं हिनस्ति परिवर्धयते च पापम् । सत्यं निरस्यति तनोति विनिन्द्यभावं सां सेवते निकृतिमत्र जनो न भव्यः ॥ १९ ॥ 62) प्रच्छादितोऽपि कपटेन जनेन दोषो लोके प्रकाशमुपयातितरां क्षणेन । वर्षो यथा जलगतं विदधाति पुंसा' माया मनागपि न चेतसि संनिधेया ॥ २० ॥
॥ इति मानमायानिषेधविंशतिः ॥ ३ ॥
निर्भत्सनाभिभवनासुविनाशनादीन् निखिलान् दोषान् उपैति इति युद्ध्वा चारुमतयः मायां न भजन्ति ।। १८ ।। या अक्ष नेषु प्रत्ययं निराकरोति पुष्पं हिनस्ति पापं परिवर्धयते सत्यं निरस्यति च विनिन्द्यभावं तनोति भव्यः जनः तां निकृति न सेवते ।। १९ । लोके जनेन कपटेन प्रच्छादितः अपि दोषः क्षणेन प्रकाशम् उपथातितराम् । यथा जलगतं वचः क्षणेन प्रकाशतो विदधाति । ( अतः ) पुंसा मनाक् अपि माया चेतसि न संनिधेया ॥ २० ॥
।। इति मानमायानिषेधविंशतिः ॥ ३ ॥
मय, झिडकी, तिरस्कार और प्राणनाश आदि समस्त दोषोंको प्राप्त होता है, ऐसा जान करके बुद्धिमान् मनुष्य उस मायाका व्यवहार नहीं करते हैं || १८ || जो मायाव्यवहार यहां विद्वानोंके मध्य में विश्वास को दूर करता है, पुण्यको नष्ट करता है, पापको बढ़ाता है, सत्यका निराकरण करता है और निन्दनीय भावको विस्तृत करता है, भव्य जन उस मायाव्यवहारकी सेवा नहीं करते हैं । [ अभिप्राय यह कि बुद्धिमान मध्य जीव ऐसे अनर्थकारी कपटव्यवहार से सदां दूर रहते हैं ] || १९ || मनुष्य अपने दोषको यद्यपि कपटसे आच्छादित करता है (ढकता है) तो भी वह लोकमें क्षणभर में ही इस प्रकारसे अतिशय प्रकाशमें आ जाता है- प्रगट हो जाता है- जिस प्रकारसे कि जखमें डाला गया मल क्षणभरमें ही ऊपर आ जाता है। अत एव मनुष्यको उस मायाचारके लिए हृदयमें पोडा सा भी स्थान नहीं देना चाहिये ॥ २० ॥
इस प्रकार बीस लोकोंमें मान व मायाके निषेधपर कथन समाप्त हुआ || ३ ||
[61: २-१९
१ स सर्वो for वर्चो । २ स पुंस । ३ सom. इति, "निषेषेक", "निषेधा", इति मायाहंकार निराकरणोपदेशः ।