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षड्दर्शन समुच्चय, भाग-१, भूमिका
कहा जाता हैं । स्याद्वाद शैली से संप्राप्त बोध कोई भी तर्क, युक्ति और प्रमाणो से बाधित नहीं होता हैं । उसका सुंदर वर्णन प्रस्तुत ग्रंथ में किया गया हैं ? स्याद्वाद की दृष्टि सभी विरोधो का अंत लाकर समदृष्टि उजागर करने का कार्य करती हैं (१३३)
133. समष्टि से निरीक्षण करने से ज्ञानी पुरुषों को मालूम हुआ कि छाल को दो बाजु होती है वैसे एक ही वस्तु को अनेक बाजु
होने पर भी खुदने मानी हुई बाजु सच्ची और दूसरे ने मानी हुई बाजु गलत, इस तरह से एकांत आग्रह से लोग निरर्थक लड रहे हैं और दर्शनशास्त्र जो आत्मसाक्षात्कार का साधन है, वह आत्मसाक्षात्कार का साधन मिटकर परस्पर घोर लडाई का, द्वेष और बैर बढाने का साधन बन गये है । दूसरे के दृष्टिबिंदु में भी रहे हुए सत्यांश का स्वीकार करने जितनी मनुष्य में विवेकबुद्धि आ जाये तो झगडे का स्थान ही न रहे। इसलिए उन्होंने जगत को उपदेश दिया कि "दूसरो के दृष्टिबिंदु को समजना सीखो, एक वस्तु की घटमान अनेक बाजुओ की जांच करो, जितनी जिस प्रकार से हो सकती हो, उतनी उस तरह से स्वीकार करो, एकांत का आग्रह न रखो, अनेकांती बनो । अन्त शब्द का अर्थ धर्म होता है । ( अनेके बहवोऽन्ता अंशा धर्मा वा आत्मनः स्वरुपाणि यस्य तदनेकान्तात्मकम् । किं तत् ? वस्तु - न्यायावतारवृत्ति पृ. ६४) । यदि वस्तु में अनेक अन्त - अनेक धर्म है तो एक ही अंत का एक ही धर्म का आग्रह रखना यह मिथ्या है। कोई कहे कि एक ही वस्तु में परस्पर विरुद्ध अनेक धर्मो का अन्तर्भाव किस तरह से हो सकता है ? तो इसके उत्तर में बौद्धाचार्य श्री धर्मकीर्ति का वचन सुन्दर है कि
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" किं स्यात् सा चित्रर्तकस्यां न स्यात् तस्या मतावपि यदीदं स्वयमर्थानां रोचते तत्र का वयम् ।। " ( प्रमाणवार्तिक २ / २१० ) पदार्थों को ही यदि अनेकथमात्मकत्व अनेकान्तात्मकत्व पसंद है, तो वह हमको पसंद न आये तो भी हम क्या कर सकते है ?
वस्तुतः यदि विचार करे तो जो विरोध दिखता है, वह वास्तविक विरोध नहीं है, परन्तु विरोधाभास है । पुत्रत्व और पितृत्व परस्पर विरुद्ध लगते है, परन्तु एक ही व्यक्ति अपने पुत्र की अपेक्षा से पिता है और अपने पिता की अपेक्षा से पुत्र हो उसमें विरोध जैसा है ही क्या ? (इसलिए ही आचार्यप्रवर श्रीमान् सिद्धसेन दिवाकरजीने कहा है कि जिसके बिना लोकव्यवहार भी किसी तरह से चल नहीं सकता वह जगत के गुरु समान अनेकांतवाद को नमस्कार जेण विणा लोगस्स विववहारो सव्वहा न निव्वह । तस्स भुवणेक्कगुरुणो णमो अणेगंतवायस्स । ( सन्मति - ३ / ६९) उसी तरह से मिट्टी का पिंड मिटकर जब घडा बनता है तब मिट्टी पिंडरूप से नाश होती है, घडे के रूप में उत्पन्न होती है और मिट्टी के रुप में सदैव रहती है । इस प्रकार अपेक्षा भेद से उत्पत्ति, विनाश और स्थिरता एक ही वस्तु में हो सकते हो तो उसमें दिक्कत जैसा है भी क्या ? यदि इस बात को स्वीकार की जाये तो वस्तु को सर्वथा अविनाशी माननेवाले वेदान्ती इत्यादि और सर्वथा विनाशी माननेवाले बौद्धो का झगडा अपने आप ही खत्म हो जाये । उसी तरह से घड़ा है, यह जितना सच है, उतना ही घडा नहीं है, यह भी सच है । क्योंकि घडा घडे के रूप में हैं, परन्तु वस्त्ररूप में नहीं है। यदि वस्त्ररूप में नहीं है इस बात का स्वीकार किया न जाये तो वस्त्र की तरह घड़े का पहनने में अंग ढकने में इस्तेमाल होना चाहिए, परन्तु होता नहीं है। अर्थात् घडा वस्त्ररूप में नहीं है, परन्तु घडे के रुप में ही है, यह बात माननी ही चाहिए । अर्थात् वस्तु एक अपेक्षा से है भी सही और अन्य अपेक्षा से नहीं है भी सही । उसी तरह से सजातीय की अपेक्षा से सामान्य है और विजातीय की अपेक्षा से विशेष है । यदि इस दृष्टि से वस्तुतत्त्व का विचार किया जाये तो दार्शनिक शास्त्रों में नित्यत्व- अनित्यत्व, सत्त्व असत्त्व, सामान्यात्मकत्व - विशेषात्मकत्व इत्यादि के जो भयंकर विवाद दिखाई देते है वह अपने आप शांत हो जाये । इतना ही नहीं, परन्तु जगत के सभी बैर-विरोध के जहर का निवारण करनेवाली यह अमृतमयी अनेकांतदृष्टि है । जैनदर्शन की नींव इस दृष्टि के उपर ही रची गई है और वह उसके संपूर्ण अहिंसा के सिद्धांत का अनुसरण करके ही रची गई है ।
इसलिए मुमुक्षु के लिए आवश्यक है कि उनको जगत में चलते मुक्तिसंबंधी अनेक विचारों का अनेक मार्गों का निष्पक्षभाव से समदृष्टि से अध्ययन करके युक्तियुक्त लगते मार्ग के उपर अपनी निश्चित प्रतीति स्थापित करनी चाहिए । अनादिकालीन वासना से अतिप्रिय लगते सभी ऐहिक सुखो का त्याग करके जिस मुक्ति के मार्ग के उपर आगे बढना है उसमें अनिश्चित अथवा दोलायमान मनः स्थिति काम नहीं आती। जैसे शारीरिक रोग निवारण के लिए रोग, रोग का कारण, आरोग्य तथा आरोग्य संपादक औषध का निश्चित ज्ञान जरूरी है, वैसे आध्यात्मिक रोगनिवारण के लिए दुःख, दुःख का कारण, दुःख में से छूटना मोक्ष तथा मोक्ष के उपायभूत मोक्षमार्ग का निश्चित ज्ञान नितांत आवश्यक है।
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