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षड्दर्शन समुच्चय, भाग-१, भूमिका
अनुपपत्ति - (अविनाभाव) रूप एकमेव लक्षणवाले पदार्थ को हेतु कहा जाता है । (१२५) इष्ट, अबाधित, असिद्ध लक्षणवाले पदार्थ को साध्य कहा जाता है । ( १२६) साध्य विशिष्ट प्रसिद्ध धर्मी को पक्ष कहा जाता है । ( १२७) पक्ष और हेतु का (दूसरो के ज्ञान के लिए) कथन करना उसे अर्थात् पक्ष और हेतु के कथन को सुनकर श्रोता को होते साध्य के ज्ञान को उपचार से परार्थानुमान कहा जाता है । ( १२८ ) ( यद्यपि अनुमान के प्रतिज्ञा और हेतु दो ही अवयव हैं ।) फिर भी मंदमतिवाले शिष्यो को समजाने के लिए दृष्टांत, उपनय और निगमन ये तीन अवयवो का भी प्रयोग किया जा सकता हैं ।(१२९) व्याप्ति
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स्मरण के स्थान (महानस आदि) दृष्टात हैं । दृष्टांत के दो प्रकार हैं- अन्वय दृष्टांत और व्यतिरेक दृष्टांत । जहाँ साधन धर्म की सत्ता होने से साध्य धर्म की सत्ता अवश्य प्रकाशित की जाये, उसे साधर्म्य (अन्वय) दृष्टांत कहा जाता है और साध्य के अभाव में साधन का अभाव बताया जाये, वह वैधर्म्य (व्यतिरेक) दृष्टांत हैं । (१३०) हेतु का पक्ष में पुनः उपसंहार करना उसे उपनय कहा जाता है और पक्ष में साध्य का पुनः निर्देश करना उसे निगमन कहा जाता हैं । (१३१) जैन मतानुसार अन्यथा - अनुपपत्ति (उ अविनाभाव) रूप हेतु का एक ही स्वरूप मान्य है । हेतु के पक्षधर्मता, सपक्षसत्त्व और विपक्षासत्त्व ये तीन रूप अव्यभिचारी नही हैं । परन्तु व्यभिचारी हैं । इन सभी बातो की उदाहरण सहित स्पष्टता श्लोक-५५ की टीका में की गई हैं । आप्तपुरुष के वचनों से उत्पन्न हुए पदार्थ के ज्ञान को आगम कहा जाता हैं । इस तरह से परोक्ष प्रमाण के पांच भेद हैं । (दोनो प्रमाण और उसके प्रभेद का श्रीवादिदेवसूरिजी रचित 'प्रमाण नय तत्त्वालोक' में विस्तार से वर्णन किया गया है । उस ग्रंथ के उपर स्याद्वादरत्नाकर और रत्नाकरावतारिका नामकी दो बृहत् टीकाओं की रचना हुई है । उसमें विस्तार से प्रमाण विषयक सभी विचारणायें की गई हैं ।) जैनदर्शन के महत्त्व के सिद्धांत :
(१) स्याद्वाद : “स्यात्” सहित बोलना उसे स्याद्वाद (१३२ ) कहा जाता हैं अर्थात् सर्वदर्शन को संमत वस्तु के सद्भूत अंशो का परस्पर सापेक्ष रूप से कथन करना उसे स्याद्वाद कहा जाता हैं । सत् असत्, नित्य-अनित्य, सामान्य-विशेष, अभिलाप्य - अनभिलाप्य इत्यादि धर्मो को सापेक्ष रुप से " स्यात् " पद से लांछित करके बोलना उसे स्याद्वाद कहा जाता है । सापेक्षवाद, विभज्यवाद या अनेकांतवाद स्याद्वाद के ही दूसरे नाम हैं ।
जैनदर्शन के मतानुसार प्रत्येक वस्तु अनंतधर्मात्मक होती हैं । अनंतउत्रिकाल विषयक अपरिमित सहभावी और क्रमभावी स्व-पर पर्याय जिसमें होते है वह अनंतधर्मात्मक कही जाती हैं । अनंत धर्मात्मक वस्तु ही प्रमाण का विषय बनती हैं । (इस विषय को प्रस्तुत ग्रंथ के श्लोक - ५५ की टीका में विस्तार से सोचा गया हैं ।)
सत्त्व असत्त्वादि परस्पर विरुद्ध धर्मो को भी सापेक्ष रुप से एक वस्तु में रखकर सभी विरोधादि दोषो का परिहार करने का सामर्थ्य केवल स्याद्वाद सिद्धांत में ही हैं । सम्यक् अपेक्षा से वस्तु का बोध करना या प्रतिपादन करना उसे स्याद्वाद 125. निश्चितान्यथानुपपत्त्येकलक्षणो हेतुः । । ३ - ११ । । न तु त्रिलक्षणकादिः । । ३ - १२ ।। तस्य हेत्वाभासस्यापि सम्भवात् ।।३-१३।। 126. अप्रतीतमनिराकृतमभीप्सितं साध्यम् ।।३-१४ ।। 127. आनुमानिकप्रतिप्रत्त्यवसरापेक्षया तु पक्षापरपर्यायस्तद्विशिष्टः प्रसिद्धो धर्मी ।।३-२० ।। 128. पक्षहेतुवचनात्मकं परार्थानुमानम्, उपचारात् ।।३-२३ ।। 129. मन्दमतींस्तु व्युत्पादयितुं दृष्टान्तोपनय - निगमनान्यपि प्रयोज्यानि । । ३ - ४२ ।। 130 प्रतिबन्धप्रतिपत्तेरास्पदं दृष्टान्तः ।। ३-४३ ।। स द्वेधा साधर्म्यतो वैधर्म्यतश्च ||३४४।। यत्र साधनधर्मसत्तायामवश्यं साध्यधर्मसत्ता प्रकाशते स साधर्म्य दृष्टान्तः । । ३ - ४५ ।। यथा यत्र यत्र धूमस्त तत्र वह्निर्यथा महानसम् ।।३-४६।। यत्र तु साध्याभावे साधनस्यावश्यमभावः प्रदर्श्यते स वैधर्म्यदृष्टान्तः । । ३ - ४७ ।। (प्र.न. तत्त्वा.) 131. हेतोः साध्यधर्मिण्युपसंहरणमुपनयः । यथा धूमश्चात्र प्रदेशे ।।३-४९ / ५० ।। साध्यधर्मस्य पुनर्निगमनम् । यथा तस्मादग्निरत्र ।।३-५१/५२ ।। (प्र.न.तत्त्वा.) । 132. स्यात्कथंचित्सर्वदर्शनसंमतसद्भूतवस्त्वंशानां मिथः सापेक्षतया वदनं स्याद्वादः । सदसन्नित्यानित्यसामान्यविशेषाभिलाप्यानभिलाप्योभयात्मानेकान्त इत्यर्थः । (षड्. समु. १ - टीका) ।
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