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कोई आश्चर्य नहीं कि अशोक भी जैन रहे हों। कुछ विद्वानों का मत है कि अशोक पहले जैन धर्म के उपासक थे पश्चात् बौद्ध हो गये । इसका एक प्रमाण यह दिया जाता है कि अशोक के उन लेखों में जिनमें उनके स्पष्टतः बौद्ध होने के कोई संकेत नहीं पाये जाते बल्कि जैन सिद्धान्तों के ही भावों का आधिक्य है, राजा का उपनाम 'देवानांपिय पिय इसि' पाया जाता है । 'देवानां पिय विशेषतः जैन ग्रन्थों में ही राजा की पदवी पाई जाती है। श्वेताम्बरी 'उवाई (ोपपातिक) सूत्र ग्रन्थ में यह पदवी जैन राजा श्रेणिक (विम्बिसार ) व उसके पुत्र कुणिक (अजात शत्रु ) के नामों के साथ लगाई गई है । पर अशोक के २२ वें वर्ष की, 'भावरा' की प्रशस्ति में, जिसमें उसके बौद्ध होने के स्पष्ट प्रमाण हैं, उसकी पदवी 'केवल पियदसि' पाई जातो है 'देवानं पिय' नहीं। इसी बीच में वे जैन से बौद्ध हुए होंगे। पर अाजकल बहुमत यही है कि अशोक बौद्ध थे। जैनियों की वंशावलियों व अन्य अन्धों में उल्लेख है कि अशोक का पात्र 'सम्प्रति' था, उसके गुरु सुहस्ति प्राचार्य थे और वह जैन धर्म का बड़ा प्रति पालक था। उसने 'पियदसि' के नाम से बहुत सी प्रशस्तियां शिलाओं पर अंकित कराई थीं । इस कथा के आधार पर प्रो. पिशेल व मि० मुकुर्जी जैसे विद्वानों का मत है कि जो शिला
१ अरली फेथ श्राफ अशोक · Early faith of Thoma:
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