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समकालीन श्री महावीर स्वामी जब तप को निकले तब यह पन्थ प्रचलित था । सम्राट अशोक ने अपनी प्रशस्तियों में जो अहिंसा, अचौर्य, सत्य, शील श्रादि गुणों पर जोर दिया है उससे प्रतीत होता है कि वे स्वयं जैन-धर्मावलंबी रहे हों तो आश्चर्य नहीं। प्रो० कनं लिखते हैं :- "His (Asoka's) ordinances concerning the sparing of animal life agree much more closely with the ideas of heretical Jains than those of the Buddhists”. __अर्थात् 'अहिंसा के विषय में अशोक के जो नियम है वे बौद्धों की अपेक्षा जैनियों के सिद्धान्तों से अधिक मिलते हैं। जैन ग्रन्थों में इनके जेन होने के प्रमाण मिलते हैं।२ । कल्हण कवि की राज तरङ्गिणी, जो संस्कृत साहित्य में ग्यारहवीं शताब्दि का एक अद्वितीय ऐतिहासिक ग्रन्थ है, में अशोक द्वारा काश्मीर में जैन धर्म के प्रचार किये जाने का वर्णन है और यही बात अबुल फज़ल की 'पाइने अकबरी' से भी विदित होती है। जैसा कि आगे चलकर बतलाया जायगा, इनके पितामह महाराज चन्द्रगुप्त मौर्य जैन थे ही । अतः इसमें
१ डा० जैकोबी सेक्रेड बुक्स श्राफ दी ईस्ट ' जिल्द २२ और ४५। २ इन्डियन एन्टीकरी जिल्द ५ पृ० २०५ । ३ राजा वली कथा ( कनाड़ी)। ४ यः शान्तरजिनो राजा प्रपत्रो जिनशासनम् । शुष्कलेऽत्र वितस्तात्रौ तस्तार स्तूपमण्डले ॥
रा० त० अध्याय १
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