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પૂર
सं० प्रा० प्राचीन जैन स्मारक ।
से एक पर लेख है जिससे प्रगट है कि इसको नन्हेसिंघई ने संवत् १४६३ व सन् १४३६ में बनवाया था। दो जैन मूर्तियों पर सं० १४८१ के लेख हैं जिनसे प्रगट होता है कि उनकी मंडपपुर के शाह श्रालम के राज्य में एक जैन भक्त ने प्रतिष्ठा कराई थी। इस व्यक्ति को मालत्रा के मांडू के बादशाह सुल्तान हुसेन का धारी कहते हैं। बड़े जैन मन्दिर के पास २२ छोटे २ मन्दिर सन् =६२ से १९६४ तक के बने हुए । देवगढ़ में खास सम्बन्ध जैनियों का रहा है जो अब भी वहां पूजा करते हैं (Deogarh is intimately associated with the Jains, who still worship here ) – यहां यह कहावत प्रसिद्ध है कि देवपत ब खेवपत दो प्रसिद्ध जैनी हो गए हैं जिनके पास एक धार्मिक पाषाण था । इसके द्वारा इन्होंने बहुत सा धन एकत्रित किया । उसी धन से उन्होंने किला बनवाया तथा मन्दिरों से इसे विभूषित किया ।
चारकिलाजिकल सरवे रिपोर्ट भारत सन् १९१७-१८ जिल्द पहली सफा ३८ से प्रगट हुआ है कि देवगढ़ में १५४ लेख हैं । सब से बड़ा सात लाइन में ब्राह्मी अक्षरों में गुप्त समय का है जिसमें ८ देवियों के चित्र हैं। शेष संस्कृत व हिन्दी में हैं। कुछ में खास जैन देवों के नाम हैं। कुछ में जैन तीर्थंकरों की २४ यक्षिणियों में से २० यक्षिणियों के नाम हैं ।
(५) दुधई - एक भग्न ग्राम - ललितपुर से दक्षिण २० मील,
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