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संक्षिप्त जैन इतिहास । संसारमें भ्रमण करते हुये समान रीतिसे दुःखका अन्त करते हैं।' (संघावित्वा संसरित्वा दुःखस्सान्तम् करिस्सन्ति), पातंजलिने भी अपने पाणनिसूत्रके भाष्यमें गोशालके सम्बंध कुछ ऐसा ही सिद्धांत निर्दिष्ट किया है । उसने लिखा है कि वह 'मस्करि' केवल वांसकी छड़ी हाथमें लेनेके कारण नहीं कहलाता था; प्रत्युत इसलिये कि वह कहता था-"कर्म मत करो, कर्म मत करो, केवल शांति ही वांछनीय है।" ( मा कृत कर्माणि, मा कत कर्माणि इत्यादि)।
अतएव दिगम्बर जैनाचार्यने मक्खलिगोशालको जो अज्ञान मतका प्रचारक लिखा है, वह ठोक प्रतीत होता है। और अन्य श्रोतोंसे यह भी प्रगट है कि वह विधिकी रेखको भमिट मानता था। कहता था कि जो बात होनी है, वह अवश्य होगी; और उममें पाप-पुण्य कुछ नहीं है । इस अवस्थामें उसके निकट ईश्वरका अस्तित्व न होना स्वाभाविक है । इस प्रकार दि. शास्त्रोंका उपरोक्त कथन ठीक जंचता है । और यह मानना पड़ता है कि मक्खलि गोशाल भगवान पार्श्वनाथनी के तीर्थका एक मुनि था और बहुश्रुती होते हुये भी जा उसे श्री वीर भगवान के समवशरणमें प्रमुख स्थान न मिला, तो वह उनसे रुष्ट होकर स्वतंत्र रीतिसे अज्ञानमतका प्रचार करने लगा।
किन्तु देवसेनाचार्य नीने मक्खलि गोशालका नामोल्लेख 'मस्कमक्खलिगोशाल और रिपुरण' रूपमे किया है। संभव है. इससे पूरण कस्तप । पूरण उसका भाव गोशालसे न समझा जाय और
जैन मुनि था। उपरोक्त कथनको असंगत माना जाय किंतु १-दीनि भा०२.५३-५४।२-आजी० पृ. १२।३-भावसंग्रहगा. १७६i Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com