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२६८ ] संक्षिप्त जैन इतिहास। और उन्हींके अनुसार कमती बढ़ती रूपमें संसारी जीवोंके विविध भेद ही हुये हैं।'
(३) जीवशब्दका व्यवहार प्रथम शिलालेखमें हुआ है। जैनधर्ममें 'जीव' सात तत्वोंमें प्रथम तत्व माना गया है।'
(४) श्रमण शब्द तृतीय व अन्य शिलालेखोंमें मिलता है। जैन साधु और जैन धर्म क्रमशः श्रमण और श्रमणधर्म नामसे परिचित है।
(५) प्राण अनारम्भ शब्द तृतीय शिलालेख में है । जैनों में यह शब्द प्रतिरोध रूपमें "पाणारम्भ" रूपमें मिलता है।
(६) भूत शब्द चतुर्थ शिलालेखमें प्रयुक्त हुआ है। जैन शास्त्रोंमें जीवके साथ इस शब्दका भी व्यवहार हुमा मिलता है। १-पंचवि इन्दियपाणा मणवचिकाया य तिणि बलपाणा ।
आणप्पाणप्पाणो आउगपाणेण होति दसपाणा ॥५७॥ प्रवचनसार । २-तत्वार्थाधिगम सूत्र १।४-५०६ । ३-मूलाचार पृ. ३१८ व कल्पसूत्र पृ० ८३ । ४-सुव्वं पाणारंभ पच्चक्खामि अलीयवणं च ।
सबमदत्तादाणं मेहूण परिग्गहं चेव ॥ ४ ॥ मूला. ५-Js. Pt I & II Intro. और मूला. पृ. २०४ यथा:भशोकने जीव, पाण, भूत और जात शब्दोका जो व्यवहार किया है वह 'आचारागसत्र (S. B. E. P. 36 XXII ) के इस वाक्य
अर्थात् पाणा-भूया-जीवा-सत्ता के बिल्कुल समान है। बेशक अशो- कने इनका व्यवहार एक साथ नहीं किया है; किन्तु इनने प्राण व भूत
( अनारंभो प्राणानां अविहिंसा भूतानां ) का व्यवहार साथ • करके स्पष्टतः इन शब्दोके पारस्परिक भेदको स्वीकार किया है; जैसे कि बैन प्रकट करते है । (भाअयो० पृ. १३७) दि. जैनोंके प्रतिक्रमणमें भी
" पाणभद जीवसत्ताणं " रूपमें इसका उल्लेख है। (प्रावक प्रतिक्रमण पू०५) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com