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संक्षिप्त जैन इतिहास |
विपत्ति बतलाते हैं ।' जैन दृष्टिसे यह बिल्कुल ठीक है । आसवका नाश होनेपर ही जीव परमसुख पा सक्ता है । ' अशोकने आसव शब्दको जैन भावमें प्रयुक्त किया है, यह लिखा जाचुका है । अतएव अशोकका श्रद्धान ठीक जैनों के अनुपार है कि प्राणियोंका संसार स्वयं उनके अच्छे बुरे कर्मोपर निर्भर है । कोई सर्वशक्तिशाली ईश्वर उनको सुखी बनानेवाला नहीं है । कर्मवर्गणाओंका आगमन (अ.स) रोक दिया जाय, तो आत्मा सुखी होजाय ।
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(२) आत्माका अपरपना यद्यपि अशोकने स्पष्टतः स्वीकार नहीं किया है; किन्तु उन्होंने परभवमें आत्माको अनन्त सुख का उपभोग करने योग्य लिखा है । इससे स्पष्ट है कि वह आत्माको ममर - अविनाशी मानते हैं और यह जैन मान्यता के अनुकूल है । (३) लोकके विषय में भी अशोकका विश्वास जनों के अनुकू प्रतीत होता है । वह इहलोक और परलोकका भेद स्थापित करके आत्मा के साथ लोकका सनातन रूप स्पष्ट कर देते हैं । उनके निकट लोक अनादि है; जिसमें जीवात्मा अनंत कालतक अनंत सुखका उपभोग कर सक्ता है। किंतु अशोक 'वला - काल' की उल्लेख करके लोक व्यवहार में जो यहां परिवर्तन होते रहते हैं, उनका भी संकेत कर रहे हैं । जैन कहते हैं कि यद्यपि यह लोक अनादि 1 निधन है, पर भरतखण्डमें इसमें उलटफेर होती रहती है; जिसके
१- दशम शिलालेख - अध० पृ० २२० । २ - तत्वार्थ० अ० ६-१० । ३ - जमीसो० भा० १७ पृ० २७० । ४- एको मे सासदो अप्पा णाणदंसण लक्खणो । सेसा मे बाहिरा भावा सव्वे संजोग लक्खणा ॥८॥ - कुन्दकुन्दाचायैः । ५- अध० पृ० २६८ - त्रयोदश शि० । ६ - अध० पृ० १४८ व १६३चतुर्थ व पंचम शिला० ।
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