Book Title: Sankshipta Jain Itihas Part 02 Khand 01
Author(s): Kamtaprasad Jain
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 294
________________ मौर्य साम्राज्य | [ २७३ कारण इमका आदि और अंत है । एक परिवर्तन अथवा उलटफेर 'कल्प' कहलाता है ।' (४) धर्म के सिद्धांत में अशोक जीवोंकी रक्षा अथवा अहिंसाको मुरुष मानते हैं । उनके निकट अहिंसा ही धर्म है । जैन शास्त्रों में भी घमं दयामई अथवा अहिंसामई निर्दिष्ट किया गया है । उसमें धर्म के नामपर यज्ञमें भी हिंसा करने की मनाई है । अशोध्ने भी यही किया था । ४ (५) धर्मध पालन प्रत्येक प्राणी कर सक्ता है । जैनधर्मकी शरणमे आकर क्षुद्रमे क्षुद्र जीव अपना आत्मकल्याण कर सत्ता है। ठीक इन उदाग्वृत्तका अनुमरण अशोक ने किया था । उनका प्रतिघोष था कि धर्मविषयक उद्योगके फलको केवल बड़े ही लोग पासके ऐसी बात नहीं है क्योंकि छोटे लोग भी उद्योग करें तो महान स्वर्ग का सुख पासक्ते हैं । इस प्रकार उन्होंने धर्मागघनकी स्वतंत्रता प्रत्येक प्राणी के लिये कर दी थी और इस बात का प्रयत्न किया था कि हरकोई धर्मका अभ्यास करे | उनका यह कार्य भी यज्ञ-हिंसा के प्रतिरोधकी तरह वैदिक मान्यताका लोप था । ब्राह्मण समुदायका श्रद्धान औ' व्यवहार था कि धार्मिक कार्य करनेका पूर्ण अधिकार उन्हींको प्राप्त है। अशोकने भगवान महावीरके उपदेशके अनुसार प्रत्येक प्राणीको आत्म-स्वातंत्र्य और पुण्यसंचय : १- धर्ममहिंमारूपं संयन्तोपि ये परित्यक्तुम् । स्थावर हिंसामसहास्त्रसहिंसां तेऽपि मुंचन्तु ॥७५ - पुरुषार्थसिद्धपुराय । २ - मूलाचार पृ० १०८ व उम्० । ३-वीर वर्ष ५ १० २३०-२३४ ॥ ४- रूपनाथ और सहसराम के शिलालेख; मरडीका शि० व ब्रह्मगिरीका शिळा० । १८ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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